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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
दिव्यध्वनि-श्रवण के बाद भी मिथ्यात्व रह सकता है । शंका-तीर्थङ्करों के समवसरण में उनका उपदेश सुनने के पश्चात् भी क्या मिथ्यात्व का सद्भाव रहता है ?
समाधान -जो जीव तीर्थङ्कर के समवसरण में जावे उसको सम्यक्त्व हो जाता है ऐसा एकान्त नियम नहीं है।
"भवतु केवलिनः सत्यमनोयोगस्य सत्त्व तत्र वस्तुयाथात्म्यावगतेः सत्वात् । नासत्यमोषमनो योगस्य सत्त्वं तत्र संशयानध्यवसाययोरभावादिति न संशयानध्यवसाय निबन्धन वचन हेतु मनसोऽप्य सत्यमोषमनस्त्वमस्तीति तत्र तस्य सत्वाविरोधात् । किमिति केवलिनो वचन संशयानध्यवसायजनकमिति चेत्स्वार्थानत्त्याच्छोतुरावरणक्षयोपशमातिशया भावात् ।" धवल पु. १ पृ. २८३ ।
कोई प्रश्न करता है कि केवली जिन के सत्यमनोयोग का सद्भाव रहा आवे, क्योंकि केवली के वस्तु के यथार्थ ज्ञान का सद्भाव पाया जाता है, परन्तु केवली के असत्यमृषामनोयोग का सद्भाव संभव नहीं है, उनके संशय और अनध्यवसायरूप ज्ञान का अभाव है। आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि
प्रनध्यवसाय रूप के कारण रूप वचन का कारण मन होने से उसमें भी अनूभय रूप धर्म रह सकता है। अतः सयोगी जिनमें अनुभय मनोयोग का सद्भाव स्वीकार कर लेने में कोई विरोध नहीं आता है। केवली के वचन संशय और अनध्यवसाय को पैदा करते हैं इसका कारण यह है कि केवल ज्ञान के विषयभूत पदार्थ अनन्त होने से और श्रोता के प्रावरण कर्म का क्षयोपशम अतिशय रहित होने से केवली के वचनों के निमित्त से संशय और अनध्यवसाय की उत्पत्ति हो सकती है।
-जें. ग. 25-6-70/VII/का. ना. कोठारी
जीवसमास
१८ जीव समासों के नाम
शंका-स्थावर जीव ४२ प्रकार के, देव व नारकी दो-दो प्रकार के पंचेन्द्रिय तिथंच ३४ प्रकार, मनुष्य ९ प्रकार, विकलेन्द्रिय ९ प्रकार, इस प्रकार ९८ भेद संसारी जीव के श्री ब्रह्मकृष्णदास ने बतलाये हैं। इन भेदों के नाम किस प्रकार हैं।
समाधान-पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्नि कायिक, वायुकायिक, नित्यनिगोद, चतुर्गति निगोद ये छह वादर व सक्ष्म के भेद से दो दो प्रकार के अर्थात ६x२-१२। इन १२ में प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक ये दो भेद मिला देने से स्थावर १४ प्रकार के हुए। इनमें से प्रत्येक पर्याप्त, नित्यपर्याप्त व लब्ध्यपर्याप्त के भेद से तीन-तीन प्रकार के होते हैं। अतः स्थावरों के १४४३-४२ भेद हो जाते हैं।
देव पर्याप्त और नित्यपर्याप्त दो प्रकार के। इसी प्रकार नारकी भी पर्याप्त नित्यपर्याप्त दो प्रकार के ।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच संमूच्र्छन व गर्भज दो प्रकार, उनमें से संमूर्छन १८ प्रकार के और गर्भज १६ प्रकार के कल १८+१=३४ प्रकार के। कर्मभूमिज संमूर्छन संज्ञी असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच जलचर, स्थलचर, नभचर, इस प्रकार संज्ञी और असंज्ञी दोनों तीन-तीन प्रकार के अर्थात् ३४२= ६ प्रकार के। इनमें से प्रत्येक के पर्याप्त
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