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व्यक्तित्व और कृतित्व ।
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जीवाणं पुग्गलाणं गमणं जारपेहि जाव धम्मस्थी। धम्मस्थिकायभावे तत्तो परवो ण गच्छति ॥१८४॥
अर्थ- जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक ही जीवों का और पुद्गलों का गमन जानो। धर्मास्तिकाय के अभाव में जीव और पुद्गल उससे (धर्मास्तिकाय से) आगे नहीं जाते हैं ।
इससे सिद्ध है कि धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण श्री सिद्ध भगवान तनुवातवलय से ऊपर नहीं जा सकते हैं, अतः सिद्ध क्षेत्र तनुवातवलय से ऊपर नहीं हो सकता है ।
सिद्ध शिला के ऊपर दो कोष का धनोदधिवातवलय, एक कोष का घनवातवलय, १५७५ धनुष का तनुवातवलय है और तनुवातवलय के अन्त तक धर्म द्रव्य भी है । अतः सिद्ध शिला पर सिद्धक्षेत्र न होकर, तनुवातवलय के अन्त में सिद्धक्षेत्र है।
. . .. माणुसलोयपमाणे संठियतणुवादउबरिमे भागे। सरिस सिरा सम्वाणं हेटिममागम्मि विसरिसा केई ॥१५॥. जावद्धम्मवव्वं तावं. गंतूण लोयसिहरम्मि । ..
चेटन्ति सम्वसिद्धा पुह पुह गयसित्थमूसगब्भणिहा ॥१६॥ ति० ५० - मनुष्य लोक प्रमाण (-४५ लाख योजन गोलाकार क्षेत्र प्रमाण ) तनुवात के उपरिम अन्तिम भाग में सब सिद्धों के सिर सदृश होते हैं, अधस्तन भाग में विसदृश होते हैं ( क्योंकि सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना ५२५ धनुष
और जघन्य अवगाहना साढ़े तीन हाथ है । ) जहां तक धर्म द्रव्य है वहां तक लोक शिखर पर सब सिद्ध पृथक पृथक स्थित हो जाते हैं।
-जं. ग. 11-5-72/VII/........ सिद्धों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना एवं उनके द्वारा रद्ध तनुवातवलय का क्षेत्र शंका-सिद्ध पूजा की जयमाल में निम्न पद्य आया है
पन्द्रह सौ भाग महान वस, नवलाख के भाग जघन्य लस।
तनुवात के अंत सहायक हैं, सब सिद्ध नौं सुखदायक हैं ॥ इस पद्य का क्या भाव है ?
'समाधान-इस पद्य में सिद्धों के स्थान का कथन है । अष्ट कर्मों का अत्यन्त क्षय हो जाने पर ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण सिद्ध भगवान ऊपर की ओर जाते हैं। लोकाकाश के आगे धर्मद्रव्य का अभाव होने के कारण सिद्ध भगवान का लोकाकाश से बाहर गमन नहीं होता है अतः लोक के अन्त में ही ठहर जाते हैं।
जीवाणं पुग्गलाणं गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी। धम्मत्थिकायभावें तत्तो परदो ण गच्छति ॥१८४॥ (नियमसार )
अर्थ-जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक जीवों और पुद्गलों का गमन जानना चाहिए। धर्मास्तिकाय के अभाव में उससे आगे नहीं जाते।
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