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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
ध्वनि अनक्षरात्मक है यह बात असिद्ध है। प्रश्न-केवली की ध्वनि को साक्षर मान लेने पर उनके वचन प्रतिनियत एक भाषा रूप ही होंगे, अशेष भाषा रूप नहीं हो सकेंगे? उत्तर--नहीं, क्योंकि क्रमविशिष्ट, वर्णात्मक, अनेक पंक्तियों के समुच्चयरूप और सर्व श्रोताओं में प्रवृत्त होने वाली ऐसी केवली की ध्वनि संपूर्ण भाषा रूप होती है ऐसा मान लेने में कोई विरोध नहीं पाता है। प्रश्न-जबकि वह अनेक भाषा रूप है तो उसे ध्वनि रूप कैसे माना जा सकता है ? उत्तर-नहीं, क्योंकि केवली के वचन इसी भाषा रूप हैं, ऐसा निर्देश नहीं किया जा सकता है, इसलिये उनके वचन ध्वनि रूप हैं यह बात सिद्ध हो जाती है।
"यदि यह कहा जाय कि अरिहंत परमेष्ठी में मन का अभाव होने पर मन के कार्यरूप वचन का सद्भाव भी नहीं पाया जा सकता है ? सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वचन ज्ञान के कार्य हैं, मन के नहीं। अक्रम ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? ऐसी शका भी ठीक नहीं है, क्योंकि घट विषयक अक्रम ज्ञान से युक्त कुभकार द्वारा क्रम से घट की उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिये अक्रमवर्ती ज्ञान से ऋमिक वचनों की उत्पत्ति मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है।" धवल पु० १ पृ० ३६८।
यद्यपि यहाँ पर दिव्यध्वनि को ज्ञान का कार्य बतलाया गया है तथापि दिव्यध्वनि का उपादान कारण भाषा वर्गणा है जो पुद्गलमय है। निमित्त की अपेक्षा ज्ञान का कार्य है।
-जं. ग. 6-11-69/VII/रो. ला. मि. सिद्धों का निवास स्थान तनुवात के अन्त में है शंका-सिद्धक्षेत्र तनुवातवलय से ऊपर है या सिद्ध शिला पर है ? समाधान-सिद्ध भगवान का ऊवं गमन स्वभाव है । कहा भी है"विस्ससोड्ढ मई मोक्ष गमन काले विस्सा स्वभावेनोर्ध्वगतिश्चेति" । वृ०० सं० ।
जीव मोक्षगमन काल में स्वभाव से ऊर्ध्व गमन करने वाला है । अन्तराय कर्म का क्षय हो जाने के कारण शक्ति भी अनन्त है। किन्तु उस ऊर्ध्व गमन अनन्तशक्ति की व्यक्ति में अर्थात् कार्य रूप परिणत होने में धर्म द्रव्य की सहकारिता की आवश्यकता होती है अर्थात् धर्म द्रव्य की सहकारिता के बिना जीव या पुद्गल का गमन नहीं हो सकता है, अन्यथा धर्म द्रव्य का 'गतिहेतुत्व' लक्षण व्यर्थ हो जायगा। आकाश यद्यपि एक अखण्ड द्रव्य है, तथापि उसमें लोकाकाश और अलोकाकाश का विभाग धर्म और अधर्म इन दो द्रव्यों के कारण हो रहा है।
लोयालोयविभेयं गमणं ठाणं च जाण हेहि ।
जइ णहि ताणं हेऊ किह लोयालोयववहारं ॥१३५॥ नय चक्र गमन को हेतु भूत धर्म द्रव्य और स्थिति को हेतु भूत अधर्म द्रव्य इन दोनों के कारण लोकाकाश अलोका. काश ऐसा विभाग हो रहा है। यदि धर्म द्रव्य गमन के और अधर्म द्रव्य स्थिति के कारण न होते तो लोक अलोक ऐसा व्यवहार नहीं हो सकता था।
तनवातवलय के आगे धर्म द्रव्य का अभाव होने से स्वाभाविक ऊर्ध्व गमन अनन्त शक्ति से युक्त सिद्ध
तनवातवलय जीवों का तनुवातवलय से आगे गमन नहीं हो सकता है अतः वे सिद्ध भगवान तनुवातवलय के अन्त में रुक जाते हैं। श्री कुन्कुन्द प्राचार्य ने नियमसार में कहा भी है
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