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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
वृद्धि हानि रूप जो प्रति समय परिणमन है वह शुद्ध अर्थ पर्याय है। इन गुण और पर्यायों के आधारभूत प्रमूर्त असंख्यात प्रदेश हैं बह द्रव्य है। इस प्रकार ये अरिहंत भगवान के द्रव्य गुण पर्याय कहने चाहिये।
-जं. ग. 7-11-68/XIV/रो. ला. मि.
- सयोगी भगवान् कथंचित् निग्राहक व अनुग्राहक होते हैं शंका-धवल भाग ८ में सूत्र ४८ की टीका में तीर्थकर भगवान को 'शिष्ट-परिपालक एवं दुष्टों का निग्राहक' कहा है सो वीतराग देव के तेरहवें गुणस्थान में यह कैसे संभव है ।
समाधान-शिष्टजन श्री तीर्थंकर भगवान की पूजन-स्तवन वंदन तथा ध्यान कर अपना कल्याण कर लेते हैं अथवा श्री तीर्थंकर भगवान के द्वारा बताये गये मोक्षमार्ग पर चलकर कर्मबंधन से छुटकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। यदि श्री तीर्थंकर भगवान मोक्ष-मार्ग का उपदेश न देते तो शिष्टजन सांसारिक दुःखों से मुक्त न होते। श्री तीर्थंकर भगवान के धर्म द्वारा शिष्टजन स्वर्ग तथा मोक्ष-सुख को प्राप्त करते हैं । अतः श्री तीर्थंकर भगवान शिष्टपरिपालक हैं।
दुष्ट जन श्री तीर्थकर भगवान की निन्दा करने से पापकर्म का बंध करते हैं, धर्म से विमुख रहते हैं। जिसके कारण वे नरक निगोद में बहुत दु:ख उठाते हैं अथवा श्री तीर्थकर भगवान की निन्दा आदि से जो पापकर्म बँधा था वह पापकर्म उन दुष्ट पुरुषों को नरक-निगोद में पटक देता है जहां पर वे बहुत काल तक तीव्र दुःख सहन करते हैं । इस अपेक्षा से तीर्थंकर भगवान दुष्ट-निग्राहक हैं । श्री तीर्थकर भगवान स्वयं न किसी को दुःख देते हैं और न किसी को सुख देते हैं।
-जै. ग. 5-6-67/IV/प्र. के. ला. केवली सर्वशक्तिमान कैसे ? | शंका-जब श्री अरहंत भगवान जीव को अजीव नहीं बना सकते तो उनको अनन्त शक्तिमानू या सर्व शक्तिमान क्यों कहा जाता है ?
समाधान-बीर्य का घातक वीर्यान्तराय कर्म है। श्री १००८ अरहत भगवान के अन्तराय कर्म का क्षय हो गया है । अतः उनके वीर्य अर्थात् शक्ति को रोकने वाला कोई भी बाधक कारण नहीं रहा । इसलिए श्री १००८ अरहंत भगवान के अनन्तवीर्य अर्थात् सर्व वीर्य या सर्व शक्ति प्रगट हो गई है। वस्तुगत स्वभाव को अन्यथा कर देना सर्व शक्ति या अनन्त शक्ति का अर्थ नहीं है। यदि श्री १००८ अरहंत भगवान में अनन्तवीर्य या सर्व वीर्य न होता तो वे अनन्त पदार्थों या सर्व पदार्थों को युगपत् नहीं जान सकते थे। क्योंकि श्री १००८ अरहंत भगवान युगपत् सर्व पदार्थों को जानते हैं इसलिए उनमें सर्व शक्ति है। "आत्मनः सामर्थ्यस्य प्रतिबन्धिनो बीर्यान्तरायकर्मणोऽत्यन्तसंक्ष. यादुद्भूतवृत्ति क्षायिकमनन्तवीर्यम् ।" राजवार्तिक २।४।६
अर्थ-आत्मा की सामर्थ्य का प्रतिबन्धक वीर्यान्तराय कर्म है। उस वीर्यान्तराय कर्म के अत्यन्त क्षय से क्षायिक अनन्त वीर्य प्रगट होता है । इस आर्ष वाक्य से श्री १००८ परहंत भगवान के असीम निरवधि अनन्त वीर्य सिद्ध हो जाता है।
-जें. ग. 21-12-67/VII/मुमुक्षु
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