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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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नह सेढिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होइ। तह जाणओ दु ण परस्स जाणओ जाणओ सो दु ॥३५६॥ जह परदव्वं सेडिदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण । तह परदव्वं जाणइ णाया वि सयेण भावेण ॥३६१॥
___ श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने निश्चय नय के कथन की अपेक्षा से गाथा ३५६ से यह बतलाया कि ज्ञायक परद्रव्य का जानने वाला नहीं है, किन्तु व्यवहारनय के कथन की अपेक्षा गाथा ३६१ में यह बतलाया है कि ज्ञाता अपने स्वभाव से परद्रव्य को जानता है। श्री देवसेन आचार्य ने भी आलापपद्धति में सिद्धों को पर का ज्ञाता व दर्शक उपचार से बतलाया है।
"स्वभावस्याप्यन्यत्रोपचारादुपचरितस्वभावः । स धाकर्मज-स्वाभाविक-भेदात् । यथा जीवस्य मूर्तत्वमचेतनत्वं, यथा सिद्धानां परज्ञता परदर्शकत्वं च । उपचरितकान्तपक्षेऽपि नात्मज्ञता सम्भवति नियमितपक्षत्वात् तथास्मनोऽनुपचरितपक्षेपि परज्ञतादीनां विरोधः स्यात् ।"
____ अर्थात्-स्वभाव का अन्यत्र उपचार करना उपचरित स्वभाव है। वह उपचरित स्वभाव दो प्रकार का है (१) कर्मज (२) स्वाभाविक । जैसे जीब को मूर्तिक या अचेतन कहना। यह कर्मज उपचरित स्वभाव है। सिद्धों को पर का जानने वाला या देखने वाला कहना। यह स्वाभाविक उपचरित स्वभाव है। यदि अनुपचरित को न मान कर उपचरित का एकांत पक्ष किया जाय तो सिद्ध भगवान के आत्मज्ञता संभव नहीं होगी। यदि उपचरित को न मानकर अनुपचरित ( निश्चय नय ) का एकांत पक्ष किया जाय तो परज्ञता ( सर्वज्ञता ) का विरोध हो जायगा ( सर्वज्ञता का निषेध हो जायगा )।
जो मात्र निश्चय नय को सर्वथा सत्यार्थ मान कर उसका एकांत पक्ष लेते हैं और व्यवहार नय (उपचार) को असत्यार्थ सर्वथा असत्यार्थ ( झूठ ) मानते हैं उनके मत में सर्वज्ञता का विरोध होता है और वे सर्वज्ञ को मानने वाले नहीं हो सकते ।
-जं. ग. 12-10-67/VII/प्रा. ला.
अरिहन्त के द्रव्य गुण पर्याय शंका--अरिहंत परमेष्ठी के द्रव्य गुण पर्याय किस प्रकार जाने जाते हैं ?
समाधान-श्री प्रवचनसार गाथा ८० की टीका में श्री जयसेन आचार्य ने श्री अरिहंत भगवान के द्रव्य गुण पर्याय का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है-"केवलज्ञानादयो विशेषगुणा, अस्तित्वादयः सामान्यगुणाः, परमौदारिक-शरीराकारेण यदात्मप्रवेशानामवस्थानं स व्यञ्जनपर्यायः, अगुरुलधुकगुणषड्वृद्धिहानिरूपेण प्रतिक्षणं प्रवर्तमाना अर्थपर्यायाः, एवंलक्षणगुणपर्यायाधार-भूतममूर्तमसंख्यातप्रदेशं शुद्धचैतन्यान्वयरूपं द्रव्यं चेति, इत्यंभूतं द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपं पूर्वमहदाभिधानं ।"
अर्थ-श्री अरिहंत भगवान के केवलज्ञान आदि विशेष गुण हैं, अस्तित्वादि सामान्य गुण हैं। परमोदारिक-शरीराकार रूप से आत्म प्रदेशों का अबस्थान वह द्रव्य व्यंजन पर्याय है। अगुरुलघु गुण के द्वारा जो षड़
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