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स तु शक्तिविशेषः स्याज्जीवस्याघातिकर्मणाम् । नामादीनां त्रयाणां हि निर्जराकृद्धि निश्चितः ॥ ४३ ॥
दण्ड- कपाट-प्रतरलोकपूरण- क्रियानुमेयोऽपकर्षण- परप्रकृतिसंक्रमण हेतुर्वा भगवतः स्वपरिणामविशेषः शक्तिविशेषः सोऽन्तरङ्गः सहकारी निश्रेयसोत्पत्तौ रत्नत्रयस्य, तदभावे नामाद्यघातिकर्मत्रयस्य निर्जरानुपपत्तेनिः यसानु - त्पत्तेः, आयुषस्तु यथाकालमनुभवादेव निर्जरा न पुनरुपक्रमासस्यानपवर्त्यत्वात् । तदपेक्षं क्षायिकरत्नत्रयं सयोगकेवलिनः प्रथमसमये मुक्ति न सम्पादयत्येव तदातत्सहकारिणोऽसस्वात् ।
क्षायिकत्वास सापेक्ष महंत्नत्रयं यदि ।
किन क्षीणकषायस्य हक्चारित्रे तथा मते ॥ ४४ ॥ केवलापेक्षिणी ते हि यथा तद्वच्च तत्त्रयम् । सहकारिव्यपेक्षं स्यात् क्षायिकत्वेनपेक्षिता ॥ ४५ ॥
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार |
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अर्थ - प्रश्न - रत्नत्रय को ही मोक्ष का कारण सूचन करने पर अहंत भगवान को तुरन्त ही रत्नत्रय मुक्ति क्यों नहीं दे देता ? ॥४१॥
उत्तर - भविष्य काल में ( चौदहवें गुणस्थान के अन्त में होने वाला चौथा शुक्लध्यान ) विशेष सहकारी कारण अपेक्षित रहा है वह उस समय तेरहवें गुणस्थान के आदि में ) नहीं है, अतः तब मुक्ति नहीं हो सकती । ऐसा स्पष्ट रूप से कोई प्राचार्य समाधान कर रहे हैं ||४२॥
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प्रश्न – वह कौनसा सहकारी कारण है जो रत्नत्रय के पूर्ण होने पर अपेक्षित हो रहा है ? जिसके अभाव में वह रत्नत्रय अर्हन्तदेव को मुक्ति नहीं मिला रहा है ?
उत्तर - नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मों की निश्चय से निर्जरा करने वाली जीव की शक्ति विशेष है ||४३|| दण्ड, कपाट, प्रतर, लोक पूर्ण, ( केवली समुद्घात ) क्रिया से जीव के मोक्ष कारण विशेषों का अनुमान किया जाता है तथा अपकर्षण व पर प्रकृतिरूप संक्रमण के कारण जीव के परिणाम विशेष भी विद्यमान हैं । वे विशेष शक्तियाँ मोक्ष की उत्पत्ति में रत्नत्रय की अंतरंग सहकारी कारण हो जाती हैं । उन शक्तियों के अभाव में नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की निर्जरा नहीं हो सकती और निर्जरा न होने से मोक्ष भी नहीं हो सकेगा । श्रायु कर्म की तो अपने काल में फल देने रूप अनुभव से निर्जरा होती है । अनपवर्त्य आयु होने से आयु कर्म का उपक्रम नहीं होता । उन कारणों की अपेक्षा रखने वाला रत्नत्रय सयोग केवली के प्रथम समय में मुक्ति को प्राप्त नहीं करा पाता, क्योंकि सहकारी कारणों का अभाव है ।
प्रश्न- जो गुण कर्मों के क्षय से उत्पन्न होते हैं वे अपने कार्य में किसी अन्य की अपेक्षा नहीं रखते ?
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प्रतिशंका - क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र ही मोक्ष के उत्पादक क्यों न माने जावें ।
प्रतिशंका का उत्तर - वे दोनों ( दर्शन और चारित्र ) केवलज्ञान की अपेक्षा रखते हैं ।
प्रश्न का उत्तर - उसी प्रकार वह रत्नत्रय भी सहकारी कारणों की अपेक्षा रखते हैं । उन सहकारी कारणों के सद्भाव में ही रत्नत्रय से मुक्ति की प्राप्ति होती है ।। ४४, ४५ ।।
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