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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १५३ है और चरम समय में तीन घातिया कर्मों की शेष १४ प्रकृतियों का क्षय होय है। लब्धिसार क्षपणसार गाथा ६०३ की बड़ी टीका।
–. ग. 24-12-64/VIII/र. ला. जैन, मेरठ क्षीणकषाय के 'कर्मदाह की चाह' कैसे ? शंका-सर्वार्थसिद्धि पृ० ४५६ पंक्ति १८ में लिखा है-"पुनः जो समूल मोहनीय कर्म का दाह करना चाहता है, जो अनन्तगुणी विशुद्धि विशेष को प्राप्त होकर बहुत प्रकार की सहायीभूत प्रकृतियों के बंध को रोक रहा है, जो कर्मों की स्थिति को न्यून और नाश कर रहा है, जो अ तज्ञान के उपयोग से युक्त है, जो अर्थ व्यञ्जन और योग की संक्रान्ति से रहित है, निश्चल मनवाला है, क्षीण कषाय है और वैडूर्यमणि के समान निरुपलेप है, वह ध्यान करके पुनः नहीं लौटता है।" प्रश्न यह है कि क्षीण कषाय वाला मोहनीय कर्म की वाह करने की चाह करने वाला कैसे हो सकता है ? क्षीण कवाय के तो मोहनीय कर्म का क्षय हो चुका है।
समाधान-यहाँ पर 'मोहनीय कर्म का दाह करना चाहता है' इससे क्षीण मोह से नीचे वाला जीव, जो क्षपक श्रेणी पर आरूढ है, वह लेना चाहिए। वह जीव अनन्तगुणी विशुद्धि को प्राप्त होता हुआ क्षीणमोह हो जाता है । तत्त्वार्थवृत्ति अध्याय ९ सूत्र ४४ की टीका के निम्न वाक्यों से यह स्पष्ट हो जाता है-“स एव पृथक्स्ववितर्कवीचारध्यानभाक् मुनिः समूलमूलं मोहनीयं कर्म निर्दिधक्षन मोहकारणभूतसूक्ष्मलोभेन सह निर्दग्धुमिच्छन् भस्मसात् कर्तु कामोऽनन्तगुणविशुद्धिकं योगविशेषं समाश्रित्य प्रचुरतराणांज्ञानावरणसहकारि-भूतानां प्रकृतिनां बन्धनिरोधस्थितिहासौ च विवधन सन् तज्ञानोपयोगः सन् परिहृतार्थव्यञ्जनसङक्रान्तिः, सत्रप्रचलितचेताः क्षीणकषायगुणस्थानेस्थितः सन् बालवाय जमणिखि निष्कलङ्कः सन् पुनरधस्तादनिवर्तमान एकत्ववितर्क वीचारं ध्यानं
ध्यात्वा
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-जै. ग. 3-6-65/XI/र. ला. नॅन मेरठ
परहन्त देव के तत्काल मुक्ति क्यों नहीं हो जाती है ? __शंका-सूत्रजी में लिखा है कि 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।' इस का अर्थ यह हुआ कि इन तीनों की एकता होने से मोक्ष होता है। परन्तु सम्यग्दर्शन को प्राप्ति तो चतुर्थ गुणस्थान में हो जाती है और चारित्र की प्राप्ति बारहवें गुणस्थान के पहिले समय में होती है, केवलज्ञान की प्राप्ति तेरहवें गुणस्थान के प्रथम समय में हो जाती है तो भी आत्मा को मोक्ष क्यों नहीं होता ?
समाधान-इस प्रकार की शंका श्लोकवातिक अध्याय १ सूत्र १ पर श्लोक ४१ में उठाई गई है और इसका समाधान श्लोक ४२ से ४५ तक में किया गया है वे श्लोक इस प्रकार हैं:
ननु रत्नत्रयस्यैव मोक्षहेतुत्वसूचने । कि वाहतः क्षणादूर्ध्व मुक्ति सम्पादयेन्न तत् ॥ ४१ ॥ सहकारिविशेषस्यापेक्षणीयस्य भाविनः । तदेवासत्त्वतो नेति स्फूट केचित्प्रचक्षते ॥४२॥
कः पुनरसौ सहकारी सम्पूर्णेनापि रत्नत्रयेणापेक्ष्यते ? यदभावात्तन्मुक्तिमहतो न सम्पादयेत् इति चेत्
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