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चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग का प्रभाव
शंका- क्षायिक सम्यग्दृष्टि को चौथे गुणस्थान में धर्मध्यान या शुद्धोपयोग होता है या नहीं ? वारिषेण या सेठ सुदर्शन ने निर्जन स्थान में जाकर ध्यान लगाया, उस समय क्या उनके शुद्धोपयोग नहीं था ?
समाधान- उपशम, क्षयोपशम या क्षायिक कोई भी सम्यग्दृष्टि हो उसके चतुर्थ गुणस्थान में संयम का अभाव होता है, अतः वह हेय बुद्धि से इन्द्रिय सुख का अनुभव करता है' । उसके तो क्या जो संयमासंयमी या प्रमत्तसंयत हैं उनके भी शुद्धोपयोग संभव नहीं है किन्तु धर्मध्यान रूप शुभोपयोग अवश्य होता है । कहा भी हैमिथ्यात्व सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में तरतमता से अशुभोपयोग होता है । उसके पश्चात् असंयत सम्यग्टष्टि, देशविरत और प्रमत्तसंयत इन तीन गुणस्थानों में तरतमता से शुभोपयोग होता है । उसके पश्चात् अप्रमत्त आदि क्षीण - कषाय तक छह गुणस्थानों में तरतमता शुद्धोपयोग होता है । सयोगी और प्रयोगीजन ये दो गुणस्थान शुद्धोपयोग का फल है । प्रवचनसार गाथा ९ पर श्री जयसेन आचार्य की संस्कृत टीका, वृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा ३४ पर संस्कृत टीका ।
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
शंका- धवल पु० ७ पृ० २२६ सूत्र ११७ की टीका में असंयतों का उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम पूर्व कोटि बतलाया है किन्तु सूत्र ११० में संयतों का उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्तन बतलाया है । असंयतों का उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अधं पुद्गल परिवर्तन क्यों नहीं कहा ?
रहते हैं ।
-जै. ग. 30-5-63 / IX / प्या. ला. ब. संतों का अन्तरर्द्ध पुद्गल परिवर्तन नहीं होता
समाधान-संयम या संयमासंयम धारण करने से असंयम का अन्तर होता है । संयम या सयमासंयम का उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्व कोटि काल है । " संजमाणुवादेण संजदा, परिहारसुद्धि संजदा, संजदासंजदा केवचिरं कालादो होंति ।। १४७ ।। उक्कस्सेण पुठवकोडी देसूणा ॥ १४९ ॥ धवल पु० ७ पृ० १६६-१६७ ।
संयम मार्गणा अनुसार जीव संयत और संयतासंयत अधिक से अधिक कुछ कम पूर्व कोटि काल तक
चूंकि संयम व संयमासंयम का उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्व कोटि है अतः असंयत का उत्कृष्ट अन्तर भी कुछ कम पूर्व कोटि कहा गया है ।
संयम से या संयमासंयम से गिरकर असंयत हो जाने पर संयम या संयमासंयम का उत्कृष्ट अन्तर होता है असंयत का उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन काल है 'उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देणं ॥ १६८ ॥ अर्थात् असंयत का अधिक से अधिक काल-कुछ कम अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन है । अतः संयत व संयतासंयत का उत्कृष्ट अंतर कुछ कम अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन मात्र कहा है। पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे गुणस्थान वाले सब जीव असंयत होते हैं अतः असंयतों का उत्कृष्ट काल अद्ध पुद्गल परिवर्तन घटित हो जाता है ।
-जै. ग. 10-2-72 / VII / इन्द्रसेन
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१. मारणनिमित्तं तलवर गृहीत तस्कर वदात्मनिन्दासहितः सन्निन्द्रियसुखमनुभवतीत्यविर तसम्यग्टष्टेर्लक्षणम् ।
( वृहद् द्रव्यसंग्रह गा० १३ संस्कृत टीका )
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