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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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पंचास्तिकाय गाथा ८५ की टीका में भी इसी बात को कहा गया है - " यथा रागादिदोषरहितः शुद्धात्मानुभूतिसहितो निश्चयधर्मो यद्यपि सिद्धगतेरुपादानकारणं भव्यानां भवति तथा निदानरहितपरिणामोपार्जिततीर्थंकरप्रकृत्युत्तमसंहननादिविशिष्टपुण्यरूप धर्मोपि सहकारिकारणं भवति । "
अर्थ - जिस प्रकार रागादि दोष रचित शुद्धात्मानुभूति सहित निश्चयधर्म भव्य जीवों के यद्यपि सिद्ध गति का कारण है, उसी प्रकार निदान रहित परिणामों से बाँधा हुआ तीर्थंकर नाम कर्म-प्रकृति व उत्तम संहनन यदि विशेष पुण्य रूप कर्म अथवा शुभ धर्म भी सिद्धगति का सहकारी कारण है ।
वर्तमान पंचमकाल भरत क्षेत्र में वीतरागनिर्विकल्प समाधि ( श्रेणी ) तो असंभव है । प्रतिदिन पाप रूप प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। जिसका नाम सुनने मात्र से भोजन में साधारण गृहस्थ को अंतराय हो जाती थी, आज का जैन नवयुवक होटल तथा पार्टी में वे पदार्थ ही ग्रहण करता है । ऐसी दशा में पुण्य पाप को समान बतला कर पुण्य को हेय कहना कहाँ तक उचित है ।
जिस प्रकार वर्तमान काल में प्रतदाकार स्थापना का उपदेश नहीं दिया जाता है, क्योंकि अतदाकार स्थापना के द्वारा श्रावकों की प्रवृत्ति, बिगड़ने की संभावना है; उसी प्रकार पुण्य और पाप को समान कहकर पुण्य को हेय बतलाना उचित नहीं है ।
धर्म का स्वरूप पूछे जाने पर श्री मुनि महाराज ने चतुर्थ काल में भी भील को मांस का त्याग धर्म है, ऐसा उपदेश दिया था । निर्विकल्प समाधि धर्म है, ऐसा उपदेश भील को नहीं दिया गया था ।
"हिसादिष्विहा नुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥ दुःखमेव वा ॥" इन सूत्रों द्वारा पाप को ही हेय बताया गया है । पुण्य को हेय नहीं बतलाया, क्योंकि यहाँ श्रावकों के लिए उपदेश था ।
- जै. ग. 5-10-67 / VII / ट. ला. जैन, मेरठ व्रती के शुद्धोपयोग नहीं कहा
दिगम्बर श्राम्नाय में
शंका -- परमात्मप्रकाश गाथा १२ की संस्कृत टोका में चौथे पाँचवें छठे गुणस्थानों में सराग स्वसंवेदन बताया है, अतः चौथे गुणस्थान में आंशिक शुद्धोपयोग मानने में क्या बाधा है ?
समाधान- श्री प्रवचनसार गाथा १४ में शुद्धोपयोग परिणत आत्मा का कथन श्री कुंबकुंद आचार्य ने निम्न प्रकार किया है
सुविदिपत्यसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो । समणो समसुहदुक्खो भणिवो सुद्धोवओगोत्ति ॥ १४ ॥
अर्थ — जिन्होंने पदार्थों को और सूत्रों (पूर्वी) को भलीभांति जान लिया है, जो संयम और तपयुक्त हैं जो वीतराग अर्थात् राग रहित हैं और जिन्हें सुख-दुःख समान हैं; ऐसे मुनि को शुद्धोपयोगी कहा गया है ।
इस गाथा से स्पष्ट है कि साधारण मुनि को भी शुद्धोपयोगी नहीं कहा गया है । फिर चौथे गुणस्थान वाला शुद्धोपयोगी कैसे हो सकता है। जो सवस्त्र मुक्ति मानते हैं वे चौथे गुणस्थान में भी वस्त्र सहित के शुद्धोपयोग का विधान करते हैं किन्तु दिगम्बर आम्नाय में सवस्त्र के शुद्धोपयोग का विधान नहीं है ।
- जै. ग. 4-1-68 / VII / ना. कु. ब.
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