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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
जैनधर्म भी यही कहता है कि प्रत्येक द्रव्य का जैसा स्वभाव है उसको वैसा ही जानो और वैसा ही श्रद्धान करो। इसी का नाम सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान है अर्थात् सच्चा श्रद्धान व सच्चा ज्ञान है। जब वस्तु स्वभाव का सच्चा श्रद्धान व ज्ञान हो जाएगा तो किसी वस्तु को भी इष्ट-अनिष्ट मानकर उसमें रागद्वेष नहीं किया जा सकता है किन्तु आत्मा का उपयोग आत्मा में ही स्थिर हो जाता है और परम वीतरागता हो जाती है उसीका नाम सम्यकचारित्र है अतः सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को भी धर्म कहा गया है। दो द्रव्य अर्थात जीव व पुद्गल ऐसे भी हैं जो बाह्य निमित्त पाकर विभावरूप भी हो जाते हैं। जीव अनादिकाल से विभावरूप होता चला पा रहा है। यह विभावता उपर्युक्त सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र द्वारा दूर की जाकर जीव अपने पूर्ण धर्म (स्वभाव) को प्राप्त कर सकता है। इसी कारण उनको भी धर्म कहा गया है। अतः परमात्मा द्वारा धर्म नहीं बनाया जाता प्रत्युत् धर्म द्वारा परमात्मा बनता है। धर्म का दूसरा लक्षण यह भी है कि धर्म उसको कहते हैं कि जो जीव को संसार के दुःखों से निकाल कर मोक्ष में पहुँचा दे । उपर्युक्त कथनानुसार सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप ही ऐसा धर्म है जो जीव को संसार के दुःखों से निकाल कर मोक्ष में पहुँचा देता है। जब वस्तु अनादि है तो उसका उपर्युक्त श्रद्धान-ज्ञान व चारित्र भी सन्ततिरूप से अनादि ही है।
अब प्रश्न यह होता है कि जब धर्म अनादि है तो उसके साथ जैन विशेषण क्यों लगाया जाता है ? इसका उत्तर यह है कि अनादि सिद्धान्त का भी जो कोई महानुभाव ज्ञान करके (Discover करके) साधारण जनता को बतलाता है वह सिद्धान्त उसी के नाम से पुकारा जाता है जैसे माल्थस थ्योरी, न्यूटन थ्योरी। इसका अर्थ यह हरगिज नहीं है कि उस सिद्धान्त या स्वभाव को ही उन महानुभाव ने बनाया या उत्पन्न किया है। स्वभाव या सिद्धान्त तो अनन्त ही है जैसे गुरुत्वाकर्षण या Gravity गुण वस्तु में तो अनादि अनन्त ही है, वह किसी का बनाया हुआ नहीं है। इसी प्रकार धर्म तो अनादि व अनन्त ही है वह किसी का बनाया हुआ या उत्पन्न किया हुआ नहीं है किन्तु 'जिन' ने उसका ज्ञान करके साधारण जनता को बतलाया अतएव वह जैनधर्म कहलाने लगा। जो सर्वज्ञ है अर्थात् जो अपने केवल (पूर्ण) ज्ञान द्वारा तीन लोक व तीन काल की सब चराचर वस्तुनों को उनके अनन्त गुण व अनन्त पर्यायों सहित जानते हैं उनको 'जिन' कहते हैं। 'जिन' भी सन्तति रूप से अनादि हैं।
युगों ( Cycle of Time ) का परिवर्तन होता रहता है। प्रत्येक युग में (यहाँ युग से प्राशय उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी काल का है) ऐसी महानात्मायें पैदा होती हैं जो पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर अपनी दिव्यध्वनि द्वारा उस अनादि धर्म का प्रचार करती हैं। उन्हीं को जिन कहते हैं। वर्तमान युग की आदि में सर्वप्रथम श्री भगवान आदिनाथ (ऋषभनाथ) ने ही केवल (पूर्ण) ज्ञान प्राप्त कर इस अनादि धर्म का प्रवर्तन किया था। इस युग के वह सर्वप्रथम जिन हए हैं अतः इस अपेक्षा से उनको इस युग में जैनधर्म के प्रवर्तक कहा गया है। इस युग में २४ तीर्थकर हए हैं जिनमें से भगवान श्री महावीरस्वामी अन्तिम तीर्थङ्कर थे। साधारण जनता उन्हीं को जैनधर्म का प्रवर्तक मानती थी और पूर्व के २३ तीर्थङ्करों की सत्ता या उनका ऐतिहासिक पुरुष होना स्वीकार ही नहीं करती थी । डा० श्री राधाकृष्णन् ने Indian Philosophy पुस्तक द्वारा इस मत का खण्डन किया है और जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध की है।
-जं. सं. 3-1-57/VI/च. रा. जैन, चकरोंता अनुबद्ध केवलियों के नाम व संख्या शंका- अन्तिम तीर्थङ्कर के पश्चात् कितने काल में अनुबद्ध केवली हुए हैं ?
समाधान-श्री १००८ महावीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात् ६२ वर्ष में तीन अनुबद्ध केवली हुए हैं। कहा भी है
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