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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
बाबूजी से मेरा सम्पर्क लगभग पिछले बीस वर्षों से था। बाबूजी का 'शंका-समाधान' जैनदर्शन और जैनगजट में छपा करता था। मैं उनका नियमित अध्ययन करता था और अपनी शंकाएँ भी उनको लिखकर भेजता था; उनका उत्तर भी मुझे बराबर मिलता था। उनके एक पत्र में लिखा हुआ पाया कि क्या आप ला० मुसद्दीलाल ब्रह्मचारी के पुत्र हैं ? तब मुझे मालुम हुआ कि मेरे पिताजी का, जिनका स्वर्गवास सन् १९४२ में हो गया था, बाबूजी के साथ अनेक वर्षों तक सम्पर्क रहा है। बाबूजी ने मेरी शङ्कामों से तथा पत्रों के आदान-प्रदान से मुझे पहचान लिया कि मैं ला० मुसद्दीलालजी का पुत्र हूँ और जब मैंने उनको पहली बार दिल्ली के लिये आमन्त्रित किया और उनको रेल्वे स्टेशन पर लेने के लिये गया जिनको कि मैंने पहले कभी देखा भी नहीं था, इतनी बडीभीड़ के अन्दर मैंने उनको फौरन पहचान लिया। मैं यही कह सकता हूँ कि मेरा और उनका पहले भव का धार्मिक संस्कार था।
पिछले बीस वर्षों से ही मैं उनके सम्पर्क में रहा हूँ। अनेक बार बाबूजी दिल्ली आये और मैंने उनके प्रवचन सुने । जो बात उनके प्रवचनों में थी वह बात मैंने पहले किसी विद्वान् के द्वारा नहीं सुनी। बाबूजी के मुख से जो भी शब्द निकलता था वह उनके दिल से निकलता था। उनकी भावना यह रहती थी कि श्रोता वर्ग की जिन सिद्धान्त के विषय से संबद्ध कोई धारणा अगर गलत बैठी हुई है तो वह ठीक हो जाये। वे कहा करते थे कि मेरी बात अच्छी प्रकार सुन करके और उसको मनन करके अगर आपको अँचे तो मानना, वरना नहीं। उनका कहना था कि जब तुम सिद्धान्त का मनन करोगे तो शंकाएँ होनी स्वाभाविक हैं और फिर हम अपनी शंका उनके सामने रखते थे। वे उस शंका का समाधान इस प्रकार करते थे कि जिस प्रकार कोई स्कूल का अध्यापक चौथी या पाँचवीं कक्षा के विद्यार्थियों की शंका को सुलझा देता है। बस, यहीं से हमारा विशेष झुकाव बाबूजी की ओर हो गया। दरियागंज के जैन बाल-पाश्रम में एक शास्त्र सभा पहले से ही चलती थी। उस सभा के सदस्य काफी दिशाहीन थे। बाबूजी ने उन सदस्यों को जैन सिद्धान्त के प्रति सही दिशा दी और दिन प्रतिदिन उस सभा के सदस्य अधिक से अधिक बढ़ते ही चले गये । हम लोगों ने अनुभव किया कि अभी तक जो भी हमने जैन सिद्धान्त के प्रति मनन किया है उसमें काफी त्रुटियाँ हैं। अब हमारे सामने सही दिशा आई है। बाबूजी कहा करते थे कि मेरे पास जो ज्ञान है वह मुझसे कोई ग्रहण कर ले । आयु का क्या भरोसा है ? उनके मनमें यह टीस ( दुःख ) थी कि यह ज्ञान जो मैंने पचास वर्षों में स्वाध्याय करके अजित किया है मैं उसे किसी को दे दूं। परन्तु क्या कोई ऐसा व्यक्ति था जो उनके सान्निध्य में रह करके वह ज्ञान उनसे ले करके उस ज्योति को बराबर जलाये रखता?
बाबूजी एक बात पर विशेष जोर देते थे कि जैन समाज में जो मिथ्यात्व घुस गया है वह कैसे दूर हो ? वे हमेशा अपने प्रवचनों में इसी विषय पर ज्यादा जोर देते थे कि राग-द्वेष छोड़कर वस्तु तत्त्व को अच्छी प्रकार मनन करके ग्रहण करो। परन्तु इस अर्थ प्रधान युग में किसको समय था, उनकी बात सुनने का। संसार में मिथ्यात्व का बोलबाला है। हर व्यक्ति का जीवन कुछ ऐसा मशीनवत् हो गया है कि प्रातः उठता है, दिन-प्रति दिन के कार्य से निवृत्त होता है, भोजन करता है, अर्थ उपार्जन के लिये घर से निकल जाता है, सायंकाल घर आता है. फिर भोजन करता है और कुछ समय संसार की रंग रेलियों में लीन होता है और सो जाता है। पूनः प्रात: वही क्रिया जो पहले दिन की थी। उसको बिलकुल भी समय नहीं है, यह सोचने का कि, मैं कौन हूँ, क्या हूँ, कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाना है, क्या कर रहा हूँ और क्या करना चाहिये । सारा जीवन इस शरीर की सेवा करते-करते ही व्यतीत हो रहा है पर यह शरीर इसका बिलकुल भी साथ नहीं देता। हम यह तो सोचते हैं कि मेरे मरने के पश्चात् मेरी स्त्री, पुत्र, पुत्री, पौत्र, मकान तथा जायदाद वगैरह. इसका क्या होगा? परन्तु यह नहीं सोचते कि मरने के बाद मेरा क्या होगा? बाबूजी चौबीस घण्टों में से अठारह घण्टे नित्य स्वाध्याय, मनन, प्रवचन पूजा आदि में ही व्यतीत करते थे।
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