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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
मृत्युः" । वह दिन अकस्मात् आ ही पहुँचा और करणानुयोग की यह महान् सजीव प्रतिमा सदैव के लिए हमसे बिछुड़ गई । घटनाचक्र इसप्रकार घटित हुआ :
आपकी दिनचर्या २६-११-८० तक यथापूर्व चलती रही । यों एक-दो दिन पहले से ही आपके शरीर में अधिक दर्द था । २७-११-८० को प्रात: जिनपूजन से निवृत्त होते ही आप घर चले गये तथा मेरे लिये आदेश दे गये कि मैं स्वाध्याय से निवृत्त होने पर आपसे घर मिलू। उस दिन शरीर में दर्द पिछले दिन की अपेक्षा अधिक बढ़ गया था। मिलने पर मैंने उनसे "वैद्यजी को बुलाकर लाऊँ ?" ऐसा कहा तो ज्ञात हुआ कि वे इतनी अधिक शारीरिक वेदना में भी अन्य किसी की सहायता के बिना स्वयमेव वैद्यजी से मिलकर आए थे। वैद्यजी ने औषधि दे दी तथा कोई भी सन्देहात्मक या भयंकर रोग नहीं बताया। वह दिन उनके लिये वेदना पूर्वक बिना कुछ खाये-पीये मात्र औषधि ग्रहण के साथ व्यतीत हा । दिन में तथा रात्रि में भी मैंने पर्याप्त समय तक उनके शरीर को सहलाया, दबाया। अद्ध रात्रि से उनकी शारीरिक वेदना बढ़ने लगी। २८-११-८० को प्रातः मन्दिरजी में जब शास्त्रसभा चल रही थी कि अचानक घर से सन्देश आया कि उन्होंने अनुज पूज्य पण्डित श्री नेमिचन्दजी को व मुझे यथाशीघ्र बुलाया है। जाने पर हमने देखा कि वे तीव्रतम शारीरिक पीड़ा से व्यग्र थे। उनकी कमर में इतना भयङ्कर दर्द था कि न तो उनसे बैठते बनता था न लेटते । उनके मुख से बार-बार यही शब्द निकल रहे थे कि “भाई नेमचन्द ! बस. अब मैं नहीं बचगा।" ऐसा बार-बार सुनने पर भी हममें से किसी को भी ऐसी आशा नहीं थी कि करणानुयोग की यह सजीव प्रतिमा कुछ ही घण्टों के बाद अचल हो जाएगी। क्योंकि इससे पूर्व भी उनके जीवन में एकदो अवसर ऐसे गुजरे थे जिनमें वे इससे भी अधिक अस्वस्थ थे।
एलोपैथिक डाक्टर ने उनकी स्थिति देखकर घर पर ही 'काडियोग्राम' कराने के लिये कहा परन्तु दुर्भाग्य से दिन में बिजली न होने से शाम को कराने का निश्चित किया गया। दिन भर आवश्यक उपचार किया भी गया परन्त वह सब निरर्थक सिद्ध हुआ। उसी दिन २८-११-८०, शुक्रवार, मार्गशीर्ष कृष्णा सप्तमी को संध्याकाल ७ बजे वह महान आत्मा स्वर्गारोहण कर गयी। रात्रि में १० बजे उनके निकटस्थ परिजनों की उपस्थिति के बिना भी धर्म की मर्यादित दृष्टि से उनके पार्थिव शरीर का दाहसंस्कार किया गया। पूज्य पण्डितजी के निधन से समग्र जैन संस्कृति पर तीव्र वज्रपात हुआ।
उनके निधन से मुझे जो असीम वेदना हुई है, उसे मैं अपने शब्दों व अश्रुओं से प्रकट नहीं कर सकता। दुःख इस बात का नहीं है कि उनकी मृत्यु हुई क्योंकि मृत्यु तो अवश्यम्भावी है । दुःख का कारण यह है कि उनका ज्ञान उनके साथ ही चला गया। मैं उसका इच्छित लाभ न ले सका। इतना ही लिखकर मैं उस दिवंगत आत्मा के प्रति अपनी भावप्रसूनाञ्जलि समर्पित करता हूँ और वीर प्रभु से उस आत्मा के प्रति शीघ्र ही मुक्ति प्राप्ति की प्रार्थना करता हूँ।
बाबूजी : इस शताब्दी के टोडरमल * श्री शान्तिलाल कागजी, दिल्ली-६
बाबू रतनचन्दजी के लिये लिखना मुझ जैसे मन्द बुद्धि के लिये मुमकिन नहीं है। उनका ज्ञान अगाध था। उनका त्याग अपूर्व था। जैन सिद्धान्त के प्रति उनकी श्रद्धा दृढ़ थी। मुझे यह बात कहने में किंचित भी संकोच नहीं है कि "उनको इस शताब्दी के पं० बनारसीदास, पं० टोडरमल तथा पं० दौलतराम कह सकते हैं।"
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