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कवि नाहटाने 'अध्यात्म छत्तीसी' शीर्षक रचनाका निर्माण भी किया है। इसमें संसारसे राग विरतिका उपदेश दिया गया है। जैनदर्शनसे सम्बद्ध पारिभाषिक शब्दावलीका आधिक्य इसमें परिलक्षित होता है । कतिपय उदाहरण :
जो जो वस्तु दृश्यमान वह, वह पुद्गल रूप । राचो क्या सोचो जरा, तूं परमात्म स्वरूप ॥ कर्मबंध नहीं वस्तुतः, जानो निश्चय एह । राग द्वेष नहि होय जो, उड़े कर्मदल खेह ||
कविने 'देवतत्त्व छत्तीसी' शीर्षक रचनाका निर्माण भी किया है। यह चिन्तनप्रधान जैनदर्शन से सम्बद्ध पदावली है । साम्प्रदायिकों के लिए इसका महत्व विशेष है ।
कवि नहाने शोक गीतियाँ भी लिखी हैं । ऐसी गीतियों में श्रीजिनचारित्रसूरिजी के निधनपर रचित रचना विशेष रूपसे पठितव्य है । इस प्रकारकी गीतियों में भाव - शबलता के उदाहरण द्रष्टव्य हैं : 'जैन शासनके सितारे, स्वर्ग में जाकर बसे । चारित्रसूरि गुणके आकर, चल बसे ! हा चल बसे । गोत्र छाजेड़ पाबुदान सुत, मात सोनको धन्य है । जन्म उगणीस सौ बयालोस, चल बसे हा ! चल बसे ।
कहने की आवश्यकता नहीं कि युवक कवि श्री नाहटा भावोंकी दृष्टिसे अत्यन्त समृद्ध और भाषाकी दृष्टिसे अतीव समर्थ प्रतीत होते हैं। उनकी वाणीका स्फुरण सहज है । उसमें स्वाभाविकता और सरलता है । उनके अनेक पद पढ़ते समय भारतेन्दुयुगीन कवियोंकी कविताका स्मरण हो आता है । उनकी प्रतिनिधि कविता 'पार्श्व जिन अष्टकम्' है, जिसे हम यहाँ अविकल उद्धृत कर रहे हैं :
श्री पार्श्व-जिन अष्टकम्
श्री अगरचन्द नाहटा
गुण अशेष विश्वेश, प्रगट तुम गुणके सागर । अष्ट कर्म निःशेष शेष, सब दुरित भयाकर ॥ रुविर शान्त अम्लान्त, पार्श्व मुख अति ही मनोहर । देख इन्दु भयो मन्दु, सदा आकाश कियो घर ॥१॥ राग द्वेषको त्याग, मार्ग निर्वाण दिखायो । भये मुक्त गुणयुक्त, जन्म मरणादि गमायो ॥ नील वरण सुखकरण, श्याम पारस मन भायो । अति प्रमोद मन मोद, प्रभु दरशन में पायो ||२|| सागर सम गम्भीर, धीर मंदार गिरि सम । विजयी कर्म सुवीर, और नहीं आवे ओपम || नाग भयंकर विषधर देखत विष तजि दीनौ । रहे चरण तुम देव सेव करतो गुण लीनी ॥३॥
अनंत सुख मुख देखत जारत दुख दूरे । अधम वृत्ति अज्ञान रूपी तमको चकचूरं ॥ पार्श्वनाम गुण धाम, अहा पारस पत्थर भी । करे लोहको स्वर्ण, कहें फिर क्या प्रभुवरकी ||४|| ६० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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