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तीसरे कारणपर प्रकाश डालते हुए श्री नाहटाजीने बताया कि मेरे अनेक प्रकारके प्रकाशित लेखोंसे चारों तरफ यश फैला। देश-परदेश- सर्वत्र सहस्रों मुखोंसे पिताजी आदि परिजनोंको मेरा सुखद यश सुनने को मिला, इसलिए वे बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने साहित्यसेवाकी मुझे पूर्ण अनुमति प्रदान कर दी । चतुर्थ कारणकी ओर संकेत करते हुए नाहटाजीने बताया कि मेरी सच्ची लगन और ईमानदारीसे पिताजी प्रभृति बहुत प्रभावित हुए। वे समझ गये थे कि मेरे प्राण साहित्य और कलाके संरक्षण - अध्ययन और उन्नयनमें बसते हैं; इसलिए उन्होंने मुझे साहित्यसाधनासे विमुख करनेका बादमें कभी प्रयत्न नहीं किया । शनैः-शनैः वे मेरे प्रति इतने उदार हो गये कि मेरा एक क्षण भी गार्हस्थ दायित्वोंमें व्यय करना उन्हें अभीष्ट नहीं था । वे स्वयं कार्य कर लेते, पर मुझ े न कहते और इस प्रकार मेरे पक्षधर बनकर मुझे अध्ययनका शुभ अवसर स्वयं तो देते ही; दूसरोंसे भी दिलवाते ।
पंचम कारण यह भी था कि मैं व्यापार भी सम्भालता था और साहित्यसेवा भी करता था । जो लोग निरन्तर वर्षभर व्यापारमें लगकर जितनी दक्षता ला पाते थे; उसे मैं कुछ महीनोंके क्रमसे ले आता था और शेष समय में पढ़ता - लिखता रहता था इसलिए पारिवारिकों की ओरसे विशेष आपत्तिका पात्र में नहीं बना ।
श्री नाहटाजीने अपने व्यक्तित्वमें व्यापार - अध्यात्म और अध्ययनके समन्वयके विषयमें लेखकको कि मेरी मूल अभिरुचि अध्यात्म में है । साहित्य मेरी आध्यात्मिक साधनाका साधन है और व्यापार लौकिक दायित्वों के निर्वाहका साधन और प्रकारान्तरसे वह भी मेरी आध्यात्मिक साधनाका साधक ही बन गया है; बाधक नहीं है । व्यापारने मेरी न्यूनतम आवश्यकताओंकी सम्पूर्ति कर मुझे अर्थकी ओरसे निश्चिन्त बना दिया है; इसलिए मैं निर्द्वन्द्वभावसे अपनी साधना - अध्यात्म साधना कर लेता हूँ ।
श्री नाहटाने कहा कि अगर मैं अर्थलोलुपताका चेरा बनकर व्यापार करता तो मैं अपनी साधनासे गिर जाता और तृष्णाकी तरुणता मुझे ले डूबती । अतएव मैंने आजसे ४० वर्ष पूर्व सम्पत्तिकी सीमा निर्धारित कर ली थी और वह भी केवल पाँच लाख । आज राज्य सरकारें भी तो यही कर रही हैं; जो मैंने चालीस वर्ष पूर्व कर लिया था । श्री नाहटाजीने बताया कि मैं सुख-दुःखके हर्ष-विषादके समस्त लौकिक दायित्वोंको निबाहता हूँ; लेकिन निर्लिप्त भावसे, केवल करणीय है; इसलिए करता हूँ । यही कारण है कि मेरी अध्यात्मसाधना मुझसे दूर नहीं हुई और मुझे संबल देना उसने छोड़ा नहीं । इसीको गीता में निष्काम भाव कहते हैं । मेरे समस्त कार्य, विशेषतः लौकिक कार्य, निष्कामभावसे प्रेरित होते हैं । मैं उनमें अपनेको लिप्त नहीं करता, जलमें कमलकी भाँति जीवन जीनेका अभ्यासी हूँ-और उसी जीवन-पद्धतिपर चलते रहना चाहता हूँ ।
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श्री नाहटाजी शरीरस्थ महान् आलस्यको पास तक नहीं फटकने देते। उन्हें जो करना होता है, तुरत और उसी समय कर डालते हैं । वे समयका एक क्षण भी आलस्य, प्रमाद, तन्द्रा या गपशप में बिताना नहीं चाहते। उन्होंने यह भलीभाँति हृदयंगम कर लिया है कि आयुका क्षणलेश स्वर्णकोटियोंसे भी प्राप्त नहीं हो सकता और उसीको अगर व्यर्थ गँवा दिया; तो उससे बड़ी हानि और क्या होगी !
आयुषः क्षणलेशोऽपि न लभ्यः स्वर्णकोटिभिः ।
स एव व्यर्थतां नीतः, का नु हानिस्ततोऽधिका ॥
श्री नाहटाजीकी प्रवृत्ति संग्रहकारिणी है । उन्होंने उस प्रवृत्तिकी संतुष्टि प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों और प्रकाशित पुस्तकों एवं प्राचीन कलात्मक वस्तुओंके पवित्र संग्रहसे की है। उनका 'श्री अभयजैन ग्रंथालय' और 'शंकरदान नाहटा कलाभवन' इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । आपने संवत् १९७६-७७ के आसपासकी
५६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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