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पण्डितगण था। श्री अयण दीक्षितके रखे हुए 'व्यासतात्पर्यनिर्णय' नामक ग्रन्थ पराजित आचार्यको सर्वथा पराजित मान लेना नहीं चाहिए । यों कहकर मास तक चले हुए शास्त्रार्थका निर्देश किया है। शायद यही प्रसंगपर मध्यस्थके रूपमें पूर्वमीमांसा उस समय में अपने पूर्वमीमांसा भाष्यके कारण मान्य कोटिके और तब काशीसे आकर तीन सालसे ठहरे हुए दार्शनिक विद्वान् श्रीवल्लभको चुना गया। द्वैत और अद्वैत सिद्धा तोंकी चर्चा के अन्तमें श्रीवल्लभने दिया हुआ निर्णय दोनों पक्षोंको बाध्य था। उस समय मध्यस्थतामें कोई उत्तरमीमांसक होता तो निर्णयके विषय में आपत्तिका भय रहता । श्रीवल्लभका पूर्वमीमांसापर पूरा काबू थाभाष्य तो लिखा ही था उत्तरमीमांसापर भी 'अणुभाष्य' लिखा था वादके अन्त में 'इच्छा' निर्णयमें देकर दोनों पक्षोंका समुचित समाधान किया और नियमानुसार राजा एवं सभी विद्वानोंकी ओरसे 'कनकाभिषेक' के पात्र बने । कनकाभिषेक सम्पन्न होनेपर विरक्त प्रकृतिके श्रीवल्लभने उस निमित्त मिले हुए द्रव्य स्नानजलवत् गिनकर वादी प्रतिवादियोंके बीच बांट दिया। तब राजाने उनका तुलापुरुष समारम्भ किया । राजाने १६००० मुद्रा श्रीवल्लभके चरण में रखी, जिनमेंसे ८००० के आभूषण बनवाकर विजयनगर में प्रसिद्ध श्रीविट्ठलनाथजीको अर्पित कर दिये; ४००० अपने पिताजीके कर्ज में दे दी, और ४००० अपने गृहस्थ जीवनमें उपयुक्त हो इस कारण राजाके वहाँ जमा रखी।
इस प्रसंगके बाद श्री व्यासती श्रीवल्लभको मिले और मध्यसम्प्रदायको स्वीकार करने को कहा, किन्तु श्रीवल्लभ अपने सिद्धान्त में अचल थे ।
विजयनगर के इस संमानमहोत्सव में श्रीवल्लभको मध्यस्थी बननेके कारण सर्वोसे आचार्यत्व मिल पाया था और अब आप श्रीवल्लभाचार्य वन पाये थे। विजयनगरके निवास दरम्यान 'तत्त्वार्थदीपनिबन्ध' का तीसरा प्रकरण की स्योपज्ञ टीकाका भी आरम्भ किया हो ऐसा प्रतीत होता है; कितनेक प्रकरण ग्रन्थ, गायत्री भाषादिक भी लिखे गये थे ।
तीसरी परिक्रमा और पुष्टिमार्गका विकास
आज तक श्रीआचार्यजी सामान्य विष्णुस्वामि संप्रदायानुयायी विद्वान्के रूपमें भारतवर्ष में पर्यटन आचार्य के रूपमें प्रस्थापित दामोदरदास हरसानी और लौटकर श्रीबालाजी आदिके
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कर रहे थे । एक लघुयात्रा और दो बड़ी यात्राएँ कर चुके थे । अब स्वतन्त्र होने के कारण गौरवसे वे यात्रा के लिए निकले तो भी साथ में तो माताजी एवं कृष्ण दास मेघन ही थे। विजयनगरसे निकलकर रामेश्वर गये और वहाँसे तीर्थ करते-करते पंढरपुर आकर श्रीविठोबा के दर्शन किये और अपने पूर्वके स्थान में ही दूसरी दफे श्रीमद्भागवत पारायण श्रवण करवाया। वहांसे नाशिक आदि तीर्थ करते-करते जनकपुर आये और माणेकलालावपर श्रीमद्भागवत पारायण श्रवण करवाया। इस समय विष्णुस्वामी संप्रदाय के केवलराम नागा अपने ५०० शिष्यों के साथ शरण आया । आचार्य श्रीने उसको भागवती दीक्षा दी और उसके ही द्वारा उसके ५०० शिष्योंको दीक्षा दिलवाई।
वहाँसे गुजरात सौराष्ट्र के प्रसिद्ध तोयोंमें श्रीमद्भागवत - पारायण श्रवण कराते-कराते और शरणार्थियोंको भागवती दीक्षा देते-देते मारवाड़की पूर्व सरहदके शारखण्ड नामक स्थलमें आ पहुँचे, यहाँ आचार्यश्री के सुनने में आया कि अपने विद्यागुरु माधवेन्द्रपति व्रजमें गिरिराज गोवर्धनपर प्रगट हुए श्रीगोवर्धनधरण देवदमनकी सेवा में मस्त रहते थे उनकी कितनेक वर्षों पूर्व ही (ई० सं० १४८४ में ही सद्गत होने के कारण थी ...की सेवाकी बहुत अव्यवस्था हो गई थी। आचार्य श्री झड़पसे ब्रजभूमिमें आ पहुंचे और व्रजमें आकर प्रथम मुकाम गोकुलमें गोविन्दघाटपर किया वह दिन वि० सं० १५६३ (६० सं० १५०६ ) श्रावण
२८४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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