SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 772
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काशीपुरी विद्याका बडा धाम थी। बाल्यकाल यहाँ ही व्यतीत किया था. इस कारण कोई अप चितता नहीं थी। यहां चातुर्मासके दिनोंमें अनेक विद्वानोंके चर्चाविचारणाका मौका मिला, और इसके फलस्वरूप 'पत्रावलम्बन' नामक सुमधुर वादग्रन्थकी श्रीवल्लभके पाससे प्राप्ति हुई। पूर्वमीमांसा एवं उत्तरमीमांसा-दोनोंके सिद्धान्तोंका समन्वय इस ग्रन्थमें दीख पड़ता। दुःखका विषय है कि ग्रन्थका मध्यका कितनाक भाग नष्ट हो गया है। काशी विश्वनाथपर कितना श्रीवल्लभको आदर था वह भी इस ग्रन्थके अन्तभागको देखकर समझ में आता है; जैसा कि स्थापितो ब्रह्मवादो हि सर्ववेदान्तगोचरः। काशीपतिस्त्रिलोकेशो महादेवस्तु तुष्यतु ॥३॥ काशीमें उस समय करीब सात मासों जितना समय भगवच्चर्चा एवं शास्त्रचर्चामें और शरणार्थी जीवोंको भागवती दीक्षा देने में एवं ग्रन्थलेखनमें व्यतीत करके आप वि० सं०१५५९ (ई० स० १५०२)-व्रज मार्गशीर्ष वदी ७ शनिवारके दिन श्रीजगदीशके दर्शनके लिए निकल पड़े। जिस दिन आप जगन्नाथपुरीमें पहुँचे वह दिन एकादशीका था। जब दर्शनके लिए मन्दिरके प्रांगणमें पहुँचे उस समय किसी पण्डेने आकर श्रीजगदीशका महाप्रसाद आपके हस्तमें दे दिया। श्रीवल्लभने आदरपूर्वक ले लिया और वहाँ ही द्वादशीके सूर्योदय तक प्रभुके भजन-कीर्तनोंमें मशगूल बन रहे और सूर्योदय होते ही स्नान-संध्याकी झंझट किये बिना ही प्रेमपूर्वक प्रसादका प्राशन किया। यों एकादशीके व्रतको और प्रसादके सम्मानको अविचलित रखा। माताजोंको यहाँ ही बुला लिया और फिर काशीकी ओर गये । श्रीवल्लभका वय तीस वर्षोंका हो गया था। माताजीको एक भारी व्यथा थी। बड़ा पुत्र रामकृष्ण विरक्त होकर चला गया था, छोटा पुत्र (भविष्यका एक अच्छा कवि) रामचन्द्र मौसाल में विजयनगर दत्तक गया था। माताजीकी व्यथा श्रीवल्लभ लग्न करे तब ही दूर हो सके ऐसा था। श्रीवल्लभका दिल विरक्ततामें जीवन व्यतीत करनेका था, किन्तु माताजीके ही आग्रहसे काशी में ही अपने सजातीय गोपालोपासक देवन भट्टकी पुत्री श्रीमहालक्ष्मीके साथ लग्न किया। लग्नके बाद पत्नीको उसके पिताके वहाँ ही रखा और माताजीको यात्रा करानेके लिए साथ लेकर निकल पड़े और अल्प समयमें विजयनगरमें आ पहुँचे । यहाँ मामाजीके वहाँ ठहरकर, लिखे हुए ग्रन्थोंका संस्करण कर लिया । मध्यस्थता और कनकाभिषेक उस समय विजयनगरमें राजकीय दंगा शान्त हो चुका था और सेनापति तुळव नरसिंहने साळुव वंशके निर्बल राजा इम्मड़ि नरसिंह (ई० स० १४८२-१५०५)को एक छोटे स्थानका राज्य सौंपकर अपना राजत्व स्थापित कर दिया। सेनापति नरसिंह स्वल्प समयमें ही मर गया और इसके बाद उसके बड़े पुत्र वीरनरसिंह (ई० स० १५०७-१५०९)के हाथमें राज्यधुरा आई । उसका मुख्य अमात्य नरास नायक था और राजाका छोटा भाई कृष्णदेव रायल सेनापति था। दोनोंने मिलकर विजयनगरके राज्यको अच्छी स्थिरता दी। दो ही वर्षमें नरसिंहका देहान्त हआ और कृष्णदेवको राजत्व मिला। वह राजा बड़ा धार्मिक था। सेनापतिकी हैसियतसे भी मन्दिरों एवं तीर्थोके उद्धारका कार्य बहत किया था। वह प्रतिवर्ष विद्वानोंको बुलाकर भिन्न-भिन्न विषयोंपर शास्त्रार्थ करवाता था और विजेताको कनकाभिषेक करवाकर मान देता था। उस समय विजयनगरमें मध्व सम्प्रदायके आचार्य व्यासतीर्थ (ई० स० १४४६-१५३९)का बड़ा मान था। कृष्णदेव पिताके समयमें जब सेनापति था उसी समय ई० स० १५०५ में द्वैत और अद्वैत सिद्धान्तोंकी एक बड़ी चर्चासभा रखी गई थी। एक ओर द्वैतमतवादी व्यासतीर्थ और दूसरी ओर केवलाद्वैतवादी शांकर विविध : २८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy