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कराया। उसी वक्त एक लेख मैंने 'जैनध्वज' साप्ताहिक अजमेर में लिखा - " विद्वानोंकी कद्र करना सीखो”। उसमें मैंने जैन- समाजसे आग्रह किया था कि जैन साहित्य और समाजकी अनवरत सेवामें लीन मुनिश्री जिनविजयजी, श्री अगरचन्दजी नाहटा, श्री भंवरलालजी नाहटा और श्री मोहनलालजी दल्लीचंद देसाईका उनकी अमूल्य सेवाओंके लिए अभिनन्दन करना चाहिये किन्तु जैन समाजने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया ।
आज ३६ वर्षोंके भीतर श्री अगरचन्दजी नाहटा और भंवरलालजी नाहटा अपनी पुरातत्त्वगवेषणा, शोध निबन्ध और इतिहासको नयी दिशा देनेके कारण न केवल जैन समाज और राजस्थानके ही वरन् सम्पूर्ण भारत के अत्यन्त लोकप्रिय विद्वान् हो गये हैं । सन् १९६४में सुप्रसिद्ध हास्य कवि ' काका हाथरसी' की हीरक - जयन्ती समारोह व अभिनन्दन समारोह मेरे ही संयोजनमें हाथरसमें हुआ । उसी क्षण मेरे मस्तिष्क में आया - पूज्य मामाजी जिनके अतुल स्नेह और आशीर्वाद से आज मैं कुछ बन सका, क्यों न उनके सम्मानमें एक 'अभिनन्दन ग्रन्थ' के प्रकाशनकी योजना बनायी जाये। मैंने अपना मन्तव्य मामाजी के समक्ष रखा तो उन्होंने यह कहकर इन्कार कर दिया कि "मेरेमें क्या गुण है । मेरेसे अधिक गुणी और सेवाभावी पुरातत्त्वाचार्य विद्यमान हैं ।" आपका यह कथन सुनकर रह-रहकर मेरे मस्तिष्क में कवि रहीमका उक्त दोहा घूमता था -
" बड़े बड़ाई न हीरा मुखसे न
करे, बड़े न बोले बोल । कहे, लाख हमारा मोल ||
"विद्या ददाति विनयं " की सजीव प्रतिमा तब मैंने मामाजीके रूपमें पायी और बरबस ही मेरा दिल श्रद्धासे गद्गद् हो गया । मामाजीके मना करनेपर भी मैंने डॉ० हरीशके निर्देशनमें अभिनन्दन ग्रन्थका कार्य प्रारम्भ कर दिया। जिससे भी बात हुई, सबने एक ही स्वरमें कहा - " नाहटा - बन्धुओं का अभिनन्दन ग्रन्थ होना चाहिये।” इससे मेरा उत्साह द्विगुणित हो गया ।
१६ मार्च, १९७१को बीकानेर में नाहटाजीके षष्ठि - पूर्ति के दिन चैत वदी ४ को सोनागिरिके कुएँपर महाराजा बीकानेर डॉ० कर्णीसिंहजीके परामर्शपर एक बृहत् सभाका आयोजन नाहटाजीके अभिनन्दनके निमित्त हुआ । सभाकी विशालता और भव्यता देखकर मेरा मन मयूर नाच उठा । मैंने डॉ० मनोहर शर्मा और श्री लालनथमल जोशी आदि के उत्साहित करनेपर घोषणा की कि ४ अक्टूबर, १९७१को नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर दिल्ली के भव्य समारोह में उनको भेंट किया जावेगा । इस सभाकी अध्यक्षता महाराज कुमार नरेन्द्रसिंहजीने की थी ।
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मैं कृतज्ञ हूँ श्री रामवल्लभजी सोमाणीका, जो इस ग्रन्थके प्रबन्ध सम्पादक हैं । उन्होंने इस गुरुतर कार्यको अपने कंधेपर लेना स्वीकार किया | भारत प्रसिद्ध विद्वानोंका एक संपादक - मंडल इस ग्रन्थके लिए संगठित किया गया और लब्ध
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