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आत्म-निवेदन
राजस्थान प्राचीनकालसे ही विविधताओंका क्रीड़ास्थल रहा है। कहीं आकाशको छूती-सी पर्वत-शृंखलाएँ हैं, तो कहीं पठार और मैदान । विशाल मरुस्थल भी इस प्रदेशका मुख्य आकर्षण है। राजस्थान वीर-प्रसूता भूमिके नामसे जगविख्यात है। जहाँ इसने अपने गर्भसे अनेक वीरों और चूड़ामणियोंको जन्म दिया वहाँ अनेक साहित्यकारों, लेखकों और कवियोंकी भी प्रसूता रही है। मेरे मामा परमपूज्य श्रद्धेय श्री अगरचन्दजी नाहटा और भ्राता परमपूज्य श्री भंवरलालजी नाहटा भी इस मरुभूमिकी अनमोल देन हैं। आप मेरी माता श्रीमती मगनबाईके अनज हैं। मेरा जन्म ननिहालमें ही नाहटाजीके घर वि० सं० १९८१ आसौज वदी १० को बीकानेरमें हुआ। मेरे पिता श्री फूलचन्दजी बाँठिया व्यापारनिमित्त कलकत्तामें ही निवास करते थे। अतः ननिहालमें ही मैं अपने बाल्यकाल की अठखेलियाँ करता हुआ युवा हुआ। अपने मामा और नाहटा परिवारके संरक्षणसे ही मैं जीवनके वास्तविक मूल्यको समझ सका। मेरा यह कथन किंचित्मात्र भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आज मैं जीवनमें जो कुछ भी कर सका वह सब नाहटा-परिवारके आशीर्वादका ही परिणाम है। मेरे पिताजीसे जहाँ मुझे उदारता, जीवनकी व्यावहारिकता और प्रामाणिकता मिली वहाँ जीवनके अन्य सब पहलुओंपर नाहटा-परिवारकी गहरी छाप मुझपर पड़ी। परमपूज्य स्वर्गीय मामा भेरुदानजीसे सामाजिक संस्थाओंमें काम करना सीखा तो दूसरी तरफ नानाजी स्व० शंकरदानजी नाहटा व मामा सुभैराजजीसे व्यापारिक दिलेरी व साहस, और श्री मेघराजजीसे सहृदयता । मामा अगरचन्दजीने बाल्यकालसे ही साहित्य और लेखनकी तरफ मेरे मानसको मोड़ा, जो शनैः-शनैः मेरे जीवनका एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गया। भाईजी श्रीभंवरलालजोसे विनम्रता और माताजीसे परोपकारिताका गुण भी मैंने ग्रहण किया। स्व० अभयराजजीका देहावसान मेरे जन्मसे पूर्व ही हो चुका था। उनकी स्मृतिमें स्थापित ग्रन्थालय आज भी उनकी स्मृति दिला रहा है।
आजसे ३७-३८ वर्ष पूर्वसे ही मामाजी अगरचन्दजी मेरे प्रेरणास्रोत रहे हैं । उनका जीवन-चरित्र मैंने 'सामाजविकास' साप्ताहिक कलकत्ता, 'जैनध्वज' अजमेर व 'अनेकान्त' मासिक सहारनपुर में लिखा था। सन् १९४० में पुरातत्त्वाचार्य पद्मश्री मनि जिनविजयश्रीजी बीकानेर पधारे तो उन्होंने मामाजीकी अध्यक्षतामें आयोजित सभामें प्राचीन साहित्यके संरक्षणपर बड़ा महत्त्वपूर्ण भाषण दिया जिससे प्रभावित होकर मैंने अनेक लेख लिखे जिन्हें मामाजीने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओंमें प्रकाशित कराकर मेरे उत्साहको दुगना किया। आपकी छत्रछायामें मेरी साहित्यिक रुचि निरन्तर बढ़ती गयी। मैंने मुनिश्री जिनविजयजीका भाषण लिपिबद्ध करके 'अनेकान्त' में प्रकाशित
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