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४. रुद्रमदेव' और रामरुद्र इत्यादिकी टीका सहित एक विविध संस्करण 2
इन संस्करणोंमें केवल ५१ श्लोक समान हैं । किन्तु, जैसा कि सुशील कुमार डे ने ' सुदृढ़ आधारोंपर प्रतिपादित किया है, यदि हम साइमनके चतुर्थ संस्करण, जो वस्तुत: विविध पाण्डुलिपियोंका विलक्षण समन्वय मात्र है, की ओर ध्यान न दें तो इन विविध संस्करणोंके समान श्लोकोंकी सङ्ख्या ७२ हो जाती है । देवधर ने सुझाया है कि यदि रविचन्द्रके भ्रष्ट और त्रुटित पाठको छोड़ दिया जाय, जैसा कि उचित प्रतीत होता है, तो अर्जुनवर्मदेव, वेमभूपाल और रुद्रमदेव में पाये जाने वाले समान श्लोकोंकी सङ्ख्या बढ़कर ८४ हो जाती है। यह प्रश्न बड़ा जटिल है और इस विषयका विस्तारसे विवेचन करना यहाँ हमारा प्रयोजन नहीं हमें बूलर, एच० बेलर, कीथ ' तथा संजीवनी टीका सहित तथाकथित पश्चिमी
| यहाँ इतना कहना पर्याप्त होगा कि कुछ स्पष्ट कारणों से देवरका यह मत अधिक तर्कसङ्गत प्रतीत होता है कि रसिक संस्करण मूलपाठके सबसे अधिक निकट है ।
किन्तु मूलपाठके बिषयमें निश्चित जानकारी न होनेके कारण प्रस्तुत लेखमें हमने अमरुशतक के समस्त संस्करणोंमें पाये जाने वाले श्लोकोंका उपयोग किया है। इस प्रयोजनके लिए अर्जुन वर्मदेवकी टीका सहित काव्यमाला आवृत्ति ( edition ) को हमने आधारभूत माना है । दक्षिणी संस्करणमें पाये जाने वाले अतिरिक्त श्लोक इसी आवृत्तिमें इलोक सङ्ख्या १०३ - ११६के रूपमें और रुद्रमदेवके पाठमें उपलब्ध अतिरिक्त श्लोक क्र० ११७-१३०के रूपमें दिये गये हैं । केवल रविचन्द्र के बंगाली संस्करणमें प्राप्य श्लोक इसी आवृत्ति में क्र० १३२-१३५, १३७-१३८में दिये गये हैं । इस प्रकार सब संस्करणोंको मिलाकर अमरुशतक में १३६ श्लोक हैं जिनका उपयोग प्रस्तुत लेखमें किया गया है । इनके अतिरिक्त संस्कृत सुभाषित सङ्ग्रहोंमें अमरुकके नामसे कुछ और श्लोक भी दृष्टिगत होते हैं । ये श्लोक अमरुशतक के किसी भी संस्करणमें नहीं पाये जाते । सुभाषित सङ्ग्रहों में यदाकदा एक ही कविकी रचनाएँ दूसरे कविके नामसे और एक ही रचना विभिन्न लेखकोंके नामसे दी हुई पायीं जाती है। अतः यह श्लोक वस्तुतः अमरुकके हैं या नहीं, यह निर्णय करना कठिन है और फलस्वरूप उनका उपयोग यहाँ नहीं किया गया है ।
१. सुशीलकुमार डे द्वारा सम्पादित्त, अवर हेरिटेज, ख० २, भाग २, १९५४ ।
२. आर० साइमन, डास अमरुशतक, कील, १८९३; जेड० डी० एम० जी०, ख० ४९ (१८९५), पृ० ५७७ इत्यादि ।
३. अवर हेरिटेज, ख० २, भाग १, पृ० ९७५ ।
४. चि० रा० देवधर (सं०), वेमभूपाल रचित टीका सहित अमरुशतक, पृ०१२ - २० ।
५. अर्जुनवर्मदेव प्रणीत रसिक संजीवनी अमरुशतककी प्राचीनतम टीका है । उसमें एक समीक्षकका विवेक
था और उसने मूल और प्रक्षेपके बीच भेद करनेका प्रयत्न किया । उसका पाठ सुशीलकुमार डे द्वारा निर्धारित पाठसे बहुत समानता रखता है ।
६. जेड० डी० एम० जी०, खण्ड ४७ (१८९३), १०९४ ।
७. विन्टरनित्स, ए हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर, खण्ड ३, भाग १, कलकत्ता, १९५९, पृ० ११०, टिप्पणी, ४ ।
८. ए हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर, ऑक्सफोर्ड, १९२०, पृ० १८३ । ९. वेमभूपालकी टीका सहित अमरुशतक, प्रस्तावना, पृ० १२–२१ । १०. द्रष्टव्य-काव्यमाला आवृत्तिके श्लोक क्र० १३९-१६३ ।
२०० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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