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इस प्रकार गुणसेनकी आत्माका पर्याप्त शुद्धीकरण हो जाता है। प्रतिद्वन्दी अग्निशर्मा वानमन्तर नामका विद्याधर होता है। और गुणसेन गुणचन्द्र नामका राजपुत्र प्रथम भवकी कथामें जिन प्रवृत्तियों का विकास प्रारम्भ हुआ था वे प्रवृत्तियाँ इस अष्टम भवकी कथामें क्रमश: पूर्णताकी ओर बढ़ती हैं । नवम भवकी कथा प्रवृत्ति और निवृत्तिके इको कहा है। समरादित्यका जहाँ तक चरित्र हैं, वहाँ तक संसार निवृत्ति है और गिरिषेणका जहाँ तक चरित्र है, संसारको प्रवृत्ति है। समरादित्यका परिण वह सरल । चरित्र रेखा है, जिसपर समाधि, ध्यान और भावनाका त्रिभुज निर्मित किया जाता है। गिरिषेणका चरित्र वह पाषाण स्थल है, जिसपर शत्रुता, अकारण ईर्ष्या, हिंसा, प्रतिशोध, और निदानकी शिलाएँ खचित होकर पर्वतका गुरुतर रूप प्रदान करती हैं। इस प्रकार हरिभद्रने कथा, उपकथा और अवान्तर कथाके संघटन द्वारा अपने कथातन्त्रको सशक्त बनाया है। चरित्र, काव्य-रस और कथा-तत्वका अपूर्व संयोजन हुआ है।
भारतीय व्यंग्य काव्यका अनुपम रत्न धूर्त्ताख्यान है। मानव में जो विम्ब या प्रतिमाएँ सम्निहित रहती हैं, उन्हीं के आधारपर वह अपने आराध्य या उपास्य देवी देवताओंके स्वरूप गढ़ता है। इन निर्धारित स्वरूपों को अभिव्यञ्जना देनेके लिए पुराण एवं निजन्धरी कथाओंका सृजन होता है ।
हरिभद्रने अपने इस कथा काव्यमें पुराणों और रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्यों में पायी जाने वाली असंख्य कथाओं और दन्तकथाओं की अप्राकृतिक, अवैज्ञानिक और अवौद्धिक मान्यताओं तथा प्रवृत्तियोंका कयाके माध्यम से निराकरण किया है। वास्तविकता यह है कि असम्भव और दुर्घट बातोंकी कल्पनाऐं जीवनकी भूख नहीं मिटा सकती हैं। सांस्कृतिक क्षुधाकी शान्तिके लिए सम्भव और तर्कपूर्ण विचार ही उपयोगी होते हैं । अतएव हरिभद्रने व्यंग्य और सुझावोंके माध्यमसे असंभव और मनगढन्त बातोंको त्याग करनेका संकेत दिया है । कृतिका कथानक सरल है । पाँच धूर्तोकी कथा गुम्फित है । प्रत्येक धूर्त, असंभव अवौद्धिक और काल्पनिक कथा कहता है, जिसका समर्थन दूसरा धूर्त साथी पौराणिक उदाहरणों द्वारा करता है । कथाओं आदि अन्त तक कुतूहल और व्यंग व्याप्त है ।
हरिभद्र लघुकथाकार भी हैं । व्यक्तिके मानस में नाना प्रकारके बिम्ब – इमेज रहते हैं । इनमें कुछ व्यंग्योंके आत्मगत बिम्ब भी होते हैं जो घटनाओं द्वारा बाहर व्यक्त होते हैं। प्रेम, क्रोध, घृणा, आदिके निश्चित बिम्ब हमारे मानसमें विद्यमान हैं। हम इन्हें भाषाके रूपमें जब बाहर प्रकट करते हैं तो ये बिम्ब लघुकथा बनकर प्रकट होते हैं । कलाकार उक्त प्रक्रिया द्वारा ही लघुकथाओंका निर्माण करता है । इसके लिये उसे कल्पना सतर्कता, वास्तविक निरीक्षण, अभिप्राय ग्रहण एवं मौलिक सृजनात्मक शक्तिकी आवश्यकता
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होती है। वस्तुतः हरिभद्र ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने बृहत् कथा काव्योंके साथ-साथ लघु-कथाओंका भी निर्माण किया है । जीवन और जगत्से घटनाएँ एवं परिस्थितियाँ चुनकर अद्भुत शिल्पका प्रदर्शन किया हैं । हरिभद्रकी शताधिक लघु-कथाओंको मानव प्रवृत्तियोंके आधारपर निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। ये कथाएँ 'दशवैकालिक वृत्ति' और 'उपदेश पद में पायी जाती हैं
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१. कार्य और घटना प्रधान, २. चरित्र प्रधान, ३. भावना और वृत्ति प्रधान, ४. व्यंग्य-प्रधान, ५. बुद्धि चमत्कार प्रधान, ६. प्रतीकात्मक, ७. मनोरंजनात्मक, ८ नीति या उपदेशात्मक, ९. सौन्दर्य बोधक, १०. प्रेम-मूलक,
इस प्रकार हरिभद्र राजस्थानके ऐसे कथा काव्यनिर्माता है, जिनसे कथा काव्यके नये युगका आरम्भ होता है। इस युगको हम संघात युग कह सकते हैं। हरिभद्रने कथाओंके संभार और संगठनमें एक नयी दिशा १७६: अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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