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________________ भावना निहित रहती है। उसका उत्तेजित होना और प्रतिशोधके लिए संकल्प कर लेना उसके चारित्रगत गुण ही माने जाएँगे । द्वितीयादि सभी भवोंमें कथानक और उसका विन्यास ऋजुरूपमें हुआ है । कथाका कार्य एक विशेष प्रकारका रसबोध कराना माना जाय, तो यह कथा जीवनके यथार्थ स्वाभाविक पहलुओं के चित्रण द्वारा हमें विश्वासयुक्त रसग्रहण की सामग्री देनी है। द्वितीय भवकी कथाका प्रारम्भ प्रेम प्रसंगकी गोपनीय मुद्रासे होता है । इस सम्पूर्ण कथा भाग में 'अहं' भावका सम्यक् चित्रण किया गया है । अन्तर्कथाके रूपमें अमरगुप्त आदि की कथाएँ भी आई हैं। तृतीय भवमें ज्वालिनी और शिखीकी कथाके प्रेरणा और पिण्ड भाव मूलतः जीवके उसी धातु विपर्यय और निदानके चलते हैं, जो इन धार्मिक कथाओं में सर्वत्र अनुस्यूत है। मध्यको कथा अजितकी है जो इसी मर्मकी घटनाओंकी परिपाटीके द्वारा उद्धारित करती है। कथा इस मर्मसे प्रकाशित होकर पुनः वापस लौट आती है और आगे बढ़ती है। आगे बढ़नेपर विरोधके तत्त्व आते हैं और इस तरह गल्प वृक्षके मूलसे लेकर स्कन्ध और शाखाओं तकके अन्तर्द्वन्द्वका फिर शमन होता है | चतुर्थ भवमें धन और धनधीकी कथा है। इसका आरम्भ गार्हस्थिक जीवनके रम्य दृश्यसे होता है । | कथा-नायक धनका जन्म होता है और वयस्क होने पर अपने पूर्व भवके संस्कारोंसे आवद्ध धनश्रीको देखते ही वह उसे अपना प्रणव अर्पित कर देता है। घनश्री निदान कालुष्यके कारण अकारण ही उससे द्वेष करने लगती है । कथाकारने इस प्रकार एक ओर विशुद्ध आकर्षण और दूसरी ओर विशुद्ध विकर्षणका द्वन्द्व दिखलाकर कथाका विकास द्वन्द्वात्मक गतिसे दिखलाया है । पञ्चम भव में जय और विजयकी कथा अंकित है । इस भवकी कथामें मूल कथाकी अपेक्षा अवान्तर कथा अधिक विस्तृत है। सनतकुमारकी अवान्तर कथाने ही मूल कथाका स्थान ले लिया है। प्रेम, घृणा, द्वेष आदिकी अभिव्यञ्जना अत्यन्त सफल है। काव्यकी दृष्टिसे इस भवकी कथावस्तुमें शृंगार और करुण रसका समावेश बहुत ही सुन्दर रूपमें हुआ है। षष्ठ भवमें धरण और लक्ष्मीकी कथा वर्णित है। गुणसेनकी आत्मा धरणके रूपमें और अग्निशर्माकी लक्ष्मीके रूपमें जन्म ग्रहण करती है। घटना बहुलता, कुतूहल और नाटकीय क्रमविकासकी दृष्टिसे यह कथा बड़ी रोचक और आह्लादजनक है । कथाकी वास्तविक रञ्जन क्षमता उसके कथानक गुंफनमें है । स्वाभाविकता और प्रभावान्विति इस कथा के विशेष गुण हैं । पात्रोंमें गति और चारित्रिक चेतनाका सहज समन्वय इसकी जोरदार कथा विद्याको प्रमाणित करता है । घटनाओंकी सम्बद्ध शृङ्खला और स्वाभाविक क्रमसे उनका ठीक-ठीक निर्वाह घटनाओंके माध्नमसे नाना भावका रसात्मक अनुभव कराने वाले प्रसंगों का समावेश इस कथाको घटना, चरित्र, भाव और उद्देश्यकी एकता प्रदान करता है । सप्तम भावमें सेन और विष्णुकुमारकी कथा निबद्ध है। उत्थानिकाके पश्चात् कथाका प्रारम्भ एक आश्चर्य और कोतूहलजनक घटनासे होता है। चित्रसचित मयूरका अपने रंग-बिरंगे पांव फैलाकर नृत्य करने लगना और मूल्यवान हारका उगलना, अत्यन्त आश्चर्य चकित करनेवाली घटना है । हरिभद्रने प्रबन्धवक्रताका समावेश इस भवकी कथामें किया है । गुणसेनका जीवसेनकुमार, उत्तरोत्तर पूतात्मा होता जाता है। और अग्निशर्माका जीव विषेणकुमार उत्तरोत्तर कलुषित कर्म करनेके कारण दुर्गतिका पात्र बनता है । इतिहास और पुरातत्त्व : १७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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