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________________ ज्ञानको बेचता नहीं, स्वयं इन्हें खोजकर ठीक करूंगा । मैंने कहा-आपको वर्षों बीत गये। ये बंडल यों ही पड़े हैं और पड़े रहेंगे । आप यह काम कर नहीं सकेंगे। उन्हें यह बात जंच गई क्योंकि इसमें बड़ी बात यह थी कि एक ही ग्रन्थके कुछ पन्ने हमारे संग्रहमें आ गये और कुछ पन्ने उनके पास रह गये । दोनों संग्रह मिले बिना वे बेकार हो जाते । उन्होंने अपने संग्रह किये हुए सारे बंडल निःशुल्क हमें दे दिये और खरीदे हुए ग्रन्थ भी ३०) देकर मैं उनसे ले आया। हमारे संग्रहमें अभिवृद्धि होने लगी और अधुरे ग्रन्थ भी पूरे होने लगे। एक बार पन्द्रहवीं शतीकी लिखी हुई पद्यानुकारीतपागच्छ गुर्वावली जो एक महत्त्वपूर्ण प्राचीन कृति थी, का अन्तिम तीसरा पत्र मुझे प्राप्त हो गया और उसके दो पत्र यति मकनजीके संग्रहमें थे। मैंने कहा, बाबाजी एक ग्रन्थ दो जगह आधा-आधा रहे यह ठीक नहीं। उन्होंने कहा, तुम अन्तिम पत्र मुझे दे दो। मैंने कहा, मुझे देने में कोई आपत्ति नहीं परन्तु आपके यहाँ इसका क्या उपयोग होगा? जैसे अन्य पन्ने पड़े नष्ट होते हैं, यही हाल इसका होगा, आप जितना पैसा चाहें ले लें। उन्होंने २ पन्नोंका एक रुपया मांगा। मैं इस जीतके सौदेको खरीदने में कैसे चुक सकता था? कहना नहीं होगा कि मैंने उसे तत्काल लाकर अपने संग्रहमें रख लिया। इसी तरह यत्र-तत्र जो भी संग्रह कर सकता, करने में विलम्ब या प्रमाद नहीं किया जाता। एक बार कीत्तिसागरजीका चातुर्मास (१९८७) नागौर में था तो मैं वहाँ गया। बाबू कोटड़ीके उपाश्रयमें कितने ही हस्तलिखित ग्रन्थ पड़े थे जिनका अधिकांश भाग तो बेचकर समाप्त कर दिया गया था। उनमें कुछ ग्रन्थ कीत्तिसागरजीकी अनुमतिसे मैं बीकानेर ले आया जिसमें एक मखमली जिल्दका ज्ञानसारजीके पदोंका गुटका भी था। परन्तु नागौर संघने जब सुना तो मुझे उन्होंने वापस भेज देने के लिए पत्र दिया और न भेजने पर लिखा कि हमें पुस्तकें लानेके लिए आदमी भेजना पड़ेगा। मैंने तत्काल वह बंडल उन्हें लौटा दिया । खेद है कि ज्ञानसारजीके पद संग्रहका मैं उपयोग न कर सका और न आज तक किसीने उस गुटकेका उपयोग ही किया। नागौरमें साध्वीजी कनकश्रीजी महाराजने मुझे एक कल्पसूत्र तथा कुछ अन्य पत्र दिये थे। इसी तरह समझदार व्यक्ति हमारे पास अपने पासके हस्तलिखित पोथी-पत्रे हमें भेज देने में उस सामग्रीका सदुपयोग महसूस करने लगे। पूनरासर निवासी श्री कालूरामजी रावत मलजी बोथराने हमें एक बोरा भरे हुए ग्रन्थ (पूर्ण-अपूर्ण व रद्दी) भेजे थे। एक बार में पालीताना गया तो गुलाबचन्द शामजी भाई कोरडिया, जो जैन पंडित थे और रुग्णावस्थामें विपन्न दशा बिता रहे थे, से स्वर्गीय प्रेमकरणजी मरोटीने मुझे मिलाया। मैंने उन्हें ११) रु० दिये तो उन पण्डितजीने मुझे कुछ हस्तलिखित पत्रे प्रेस कापियाँ व कुछ पुस्तकें भेंट की। राँघड़ीके चौकमें एक हाथी जयपुरिया नामक कलाकार रहता था। उसके संग्रहमें शेरकी भालेसे शिकार करते हुए घुड़सवार महाराज पद्मसिंहजीका एक महत्त्वपूर्ण चित्र था, जिसे देखनेपर मैंने खरीदनेकी इच्छा प्रकट की और सौदा लगभग त हो चका था परन्तु मुझे उसी दिन कलकत्ते आना था । अतः पीछेसे यह कार्य अवश्य कर देनेके लिए मैंने श्री ताजमलजी बोथराको निवेदन किया। उन्होंने उससे वह चित्र लेकर पूज्य दादाजीको दे दिया। यह चित्र ठा० रामसिंहजीने शंभुदयालजी सक्सेनाके मार्फत ओझाजीको दिखाने के लिए मंगवाया और महाराज माधवसिंहजी उसे ओझाजीसे मांगकर स्वर्गीय महाराजा गंगासिंहजी बहादुरके पास ले गये । पचासों बार लालगढ़ और महकमोंका चक्कर काटकर भी अपने संग्रहकी इस अमूल्य संपत्तिको हम लौटाकर न ला सके, जिसे कि राजसे १०००) रु० उसकी कीमत स्वरूप देना स्वीकार कर लिया था पर हमने बेचना अस्वीकार कर दिया, वास्तवमें महाराजा साहबको यह पता नहीं था कि यह चित्र हमारे संग्रहका है और केवल देखनेके लिए लाया गया है, परन्तु अधिकारी वर्ग उनके सामने मुंह ३४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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