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________________ आदि प्रशस्तियाँ महत्त्वपूर्ण हैं । आबूसे मिली प्रशस्तियां १३२४ की धाघसाकी प्रशस्ति, १३३० की चीखाकी प्रशस्ति, सं० १४९६ की राणकपुरकी 3 प्रशस्ति, सं० १५१७ की कुंभलगढ़ की प्रशस्तियोंका मेवाड़ इतिहासकी साधन सामग्री में प्रमुख स्थान है । इनमें इतिहासकी कई उलझी गुत्थियाँ सुलझाई गई हैं । लगभग इसी समय की कई प्रशस्तियाँ केवल प्रशंसात्मक भी है जिनमें ऐतिहासिक सत्य कम और काव्यात्मक वर्णन अधिक हैं । इनमें वेदशर्माकी बनाई सं० १३३१ की चित्तौड़ की प्रशस्ति ५ सं० १३४२ की अचलेश्वरकी प्रशस्ति, ६ १४८५ की चित्तौड़के समाधीश्वर मन्दिरको प्रशस्ति, मुख्य है । जगन्नाथराय मन्दिरकी प्रशस्ति' सं० १७०९, राजप्रशस्ति अपने समयकी महत्त्वपूर्ण प्रशस्तियाँ हैं । अनोपसिंह के समयकी बीकानेरको प्रशस्ति भी महत्त्वपूर्ण है । इन प्रशस्तियोंमें राजाओंकी बंश परम्परा विजय यात्रायें विभिन्न युद्धों आदिका वर्णन रहता है । राजाओं या श्रेष्ठियों द्वारा कराये गये निर्माण कार्यों का भी विस्तृत उल्लेख है । इस प्रकार ये प्रशस्तियाँ मध्यकालीन राजस्थान के इतिहासकी महत्त्वपूर्ण साधन सामग्री है | प्रशस्तियोंमें प्रारम्भ में देवी-देवताओंकी स्तुति होती है । कई बार इसके लिए कई श्लोक होते हैं । बाद में राजवंश वर्णन रहता है । अगर प्रशस्ति राजासे भिन्न किसी अन्य व्यक्ति की है तो उनका वंश वर्णन आदि रहता है । इसके बाद मन्दिर बावड़ी या अन्य किसी कार्यका उल्लेख जिससे वह प्रशस्ति सम्बन्धित है रहता है । बादमें प्रशस्तिका रचनाकार और उसका वर्णन अन्तमें संवत् दिया जाता है । उदाहरणार्थ डूंगरपुर के पास स्थित ऊपर गाँवको सं० १४६१ की महारावल पाताकी अप्रकाशित प्रशस्ति, एवं १४९५ की चित्तौड़ की प्रशस्तिको लें। ये दोनों लेख जैन हैं । प्रारम्भमें कई श्लोकोंमें जैन देवी-देवताओंकी स्तुतियाँ हैं । बाद में राजवंश वर्णन । बाद में श्रेष्ठिवर्गका वर्णन है । वादमें साधुओं का उल्लेख है । इसके बाद प्रशस्तिकारका उल्लेख और अन्त में संवत् दिया गया है। कुछ प्रशस्तियों में प्रारम्भ में भौगोलिक वर्णन भी दिया रहता है । सं० १३३१ की चित्तोड़की प्रशस्ति और १३४१ की अचलेश्वर मन्दिरकी प्रशस्तिमें प्रारम्भ में चित्तौड़ नागदा मेवाड़ भूमिको प्रशंसा की गई है । इसी प्रकार सं० १५१७ की कुंभलगढ़की प्रशस्ति में, मेवाड़का भौगोलिक वर्णन, मेवाड़ के तोर्थक्षेत्र, चित्तौड़ दुर्ग वर्णन आदि दिये हैं । इसके बाद वंशावली दी गई है। ताम्रपत्र या दानपत्र बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं और इनको लिखनेमें विशेष सावधानी बरती जाती रही है । लेख पद्धतिमें विभिन्न प्रकारके प्रारूप भी लिखे हैं ताकि इनको लिखते समय इसका ध्यान रखा जा सके । प्रशस्तियों के प्रारूपसे इनके प्रारूपमें बड़ी भिन्नता रहती है। इनमें प्रारम्भमें "स्वस्ति" आदिके अंकन के बाद संवत्का अंक रहता है। इसके बाद राजाका नाम रहता है। दानपत्र प्राप्त करनेवाले व्यक्ति १. वरदा वर्ष ५ अंक ४ में प्रकाशित । २. वीर विनोद भाग १ शेष संग्रह में प्रकाशित । ३. महाराणा कुम्भा पृ० ३८४ से ३८६ ॥ ४. उक्त पृ० ३९७ से ४०१ । ५. वीरविनोद भाग १ शेषसंग्रह में प्रकाशित । ६. उक्त । ७. उक्त । ८. एपिग्राफिआ इंडिका XXIV पृ० ५६ । १३० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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