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________________ होता है कि आपकी विशेष रुचि निबन्ध-प्रवचन-भाषण-लिखने और उन्हें साप्ताहिक सभाओंमें पढ़नेकी थी। आप शालाकी प्रत्येक छात्र-सभाके प्रवक्ताओंमें अपना नाम सर्वप्रथम लिखाते थे। श्री मयाचन्द टी० शाह उन दिनों जैन पाठशालामें धर्माध्यापक थे। वे जैन-धर्म पढ़ाते थे। हमारे चरित-नायक उम्रमें छोटे अवश्य थे; लेकिन जैनधर्मकी अधिकांश उपदेशावलियाँ, प्रतिक्रमण विधियाँ उनके कंठस्थ थीं और धार्मिक ग्रंथोंके पठन-व्यसनने उनमें निखार लाना आरम्भ कर दिया था। इसलिए शाह साहब आपसे अत्यन्त प्रसन्न थे और अपने अच्छे प्रतिभा सम्पन्न शिष्योंमें आपको समझते थे। जब कभी शालीय उत्सव हाता या सामान्य गोष्ठी होती तो श्री नाहटाजीको जैनधर्मपर प्रवचन करनेके लिए कहा जाता। इस प्रवचनका आशय धर्माध्यापकजी द्वारा अध्यापित छात्रोंके माध्यमसे उनकी श्रमशीलताका प्रमाणीकरण होता था। श्री नाहटाकी रुचि खेलोंमें कम थी। उनका अधिकांश समय शालासे मिले गृहकार्य करने में लग जाता और शेष समयमें वे आगामी साप्ताहिक सभामें बोलनेके लिए जोरशोरसे तैयारीमें संलग्न हो जाते । उनकी अधिक-से-अधिक श्लोक-गाथाएँ याद करके अपने भाषणको अधिक धर्मप्राण बनानेकी ओर विशेष थी। श्री नाहटाने अपने शालीय जीवनपर लेखकके प्रश्नका उत्तर देते हुए बताया कि : "हमारे शिक्षक हमसे बहत स्नेह रखते थे । वे हमें ही अपना पवित्र पुत्र समझते थे। व्यवहार अत्यन्त आत्मीयताका था। हमारे सही उत्तर सुनकर उनका रोम-रोम खिल जाता था, उनकी आँखें जैसे हमें आशीर्वाद देनेको समुत्सुक थीं, हम उन्हें सबसे प्रामाणिक और हितैषी समझते थे। हमारी अनन्य आस्था और श्रद्धा हमें निरन्तर आनन्दित रखती थी। श्री चिम्मनलालजी गोस्वामी (वर्तमान संपादक कल्याण) तब जैन पाठशालाके प्रधानाध्यापक नियुक्त हुए थे । उनका प्रभाव बहुत था। उनकी पाठन शैली, व्यक्तित्व मधुरता और शिक्षक-शिष्योंके साथके आत्मीयतापूर्ण व्यवहारने उन्हें लोकप्रिय बना दिया था। मैं मन ही मन श्री गोस्वामीजीका अत्यन्त आदर करता और वैसा सज्जन, उच्च विद्वान् बननेका बार-बार संकल्प दुहराता था।" स्व० श्री रामलोटनप्रसादजी तो अपने शिष्यकी योग्यता को देख गदगद हो जाते थे और भूमि-भूरि प्रशंसा करते थे। यह निर्विवाद स्वीकृति है कि बचपन, भावी जीवनकी आधार-शिला है। आदर्श, वरेण्य और अनुकरणीय जीवनका निर्माण स्थल बचपन ही है और नाश-स्थल भी यही है। इसमें जिसकी पकड़ सही होती है । वह आजीवन सफल होता है और जिसकी सही नहीं होती, उसे बिगड़ते भी देर नहीं लगती। महाभारतका बाल-युधिष्ठिर अपने अन्य साथियोंकी तुलनामें "सदा सच बोलो"के पाठमें थोड़ा पिछड़ गया था, लेकिन यह उसकी मन्द बुद्धिके कारण नहीं था। युधिष्ठिर चिन्तनशील थे और प्रत्येक अच्छी बातको व्यवहारमें उतारना चाहते थे। बाल-नाहटाकी प्रवृत्ति भी प्रायः वैसी ही थी। वे पाठय पस्तकोंमें जो सक्ति-उपदेश पढते थे, उसे आजीवन व्यवहारमें जमानेके लिए दत्तचित्त रहते । परिणामतः आज श्री नाहटा साधिकार इस तथ्यको चरितार्थ करनेकी स्थितिमें हैं कि उन्होंने बचपनमें जो प्रेरक दोहे पढ़े थे; उन्हींके निष्ठापूर्वक परिपालन करनेसे वे इस स्थितिमें आ पाये हैं । श्रीअगरचन्दजी नाहटाके ही शब्दोंमें:-१ १. 'वे दोहे जो मुझे प्रेरणा देते हैं' लेखक श्रीअगरचन्द नाहटा-जैन जगत् पृष्ठ ११ । २२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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