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________________ बताते हैं 'रावतिया नाई। वह जन्मान्ध था। नाहटाजीके पैतृक गाँवका वह निवासी था और बीकानेर आकर इनके परिवारकी सेवा करने लगा था। घरके जूठे बतन प्रायः वही साफ करता था। वह तेल मालिश करनेमें भी पटु था । नाहटा परिवारके बच्चे जब उससे तेल मालिश कराते तो उसे अन्धा जानकर चिढ़ानेके लिए किसी दूसरे बच्चेका एक हाथ या पाँव उसे पकड़ा देते । इस चालाकीको वह झट ताड़ जाता और हाथपैरको टटोल कर कह देता 'ओ पग तो थारो कोयनी'-यह पैर तो तुम्हारा नहीं है। श्रीनाहटाजीके शब्दोंमें “वह बड़ा मनमौजी था। जब बैठा-बैठा अकेला उकता जाता तो बेशिर-पैरकी गप्पें हाँकने लगता। कभी कहता 'सेठां, आज तो आंयां रै गाँव कानी बादल दीस है, गाज-बीज है, मेंह सांतरों बरससी' । अर्थात् सेठ साहब, आज अपने गाँव डांडूसरकी तरफ आकाशमें जलधर दृष्टिगोचर हो रहे है, गर्जन और विद्युत्स्फुरण भी है, वर्षा खूब होगी। हमारे चरितनायकको शैशवमें कभी एकाकीपनका अनुभव नहीं हुआ क्योंकि भ्रातृपुत्र श्री भंवरलालजी ना आपसे छह मास छोटे थे और भ्राता मेघराजजी लगभग ढाई वर्ष बडे । तीनोंकी सुन्दर और सखद मंडली थी। खेलना-पढ़ना-पाठशाला जाना और भोजन आदि सब साथ-साथ चलता था। बाल स्वभावसे कभी-कभी आपसमें अल्प समयके लिए ठन जाती तो भतीजे भंवरलालजी मेघराजजीके पक्षमें होते । आननफाननमें क्रोध-मनमटाव मिट जाता और तीनों एक-हृदय होकर उत्फुल्ल भावसे फिर वैसे ही खेलते-खाते और गप्पें हाँकते । श्री भंवरलालजी नाहटाके शब्दोंमें : "कभी-कभी दोनों काकाजीके आपसमें बोलचाल बन्द हो जाती तो मैं मेघराजजीके पक्षमें हो जाता था । थोड़ी देरका मनमुटाव हवा होते देर नहीं लगती और हमारे तीनोंमें परस्पर बड़ा प्रेम रहता । काकाजी मेघराजजी हमारेसे आगे थे और हम दोनों एक ही क्लासमें पढ़ते थे। मेघराजजी चौथी क्लासमें शायद दो तीन वर्ष जमे रहे तो हम दोनों तीसरी क्लासमें थे, फिर पाँचवीं क्लासमें हम तीनों (श्री मेघराजजी नाहटा, श्री अगरचन्दजी नाहटा एवं भ्रातृपुत्र श्री भंवरलालजी नाहटा) साथ-साथ थे।"१ हमारे चरितनायकको बचपनमें बड़ी माताका अपार स्नेह प्राप्त हुआ था। माता-पिता कलकत्ता चले गये थे और उन्हें बड़ी माताके पास छोड़ गये थे । श्री नाहटाजीके शब्दोंमें "बड़ी माँ अत्यन्त सरल-हृदया थीं। उनके स्नेहाधिक्यने मेरी माँको भुला दिया था। वह खांखरे (पतली ठंडी रोटी) पर ताजा मक्खन लगाकर सबेरे-सबेरे खानेको देतीं और तब पढ़नेके लिए भेजतीं। एक बार शाला जीवनमें ओरी निकली, बड़ी माँजीने अहर्निश सचेष्ट रहकर खूब सेवा की । वे प्रायः कहती थीं: "लडको बहत स्यांणों है; न ओय करै न आय करै" । बड़ी माताका स्नेह बाल नाहटाको किसी भी स्थितिमें दुःखी या रोता हुआ नहीं देख सकता था-उन्होंने एक बार मारजाको भी कह दिया था कि "मेरे अगरूको न मारा करो"। विद्यारम्भ अक्षय तृतीयाको जैन पाठशालामें हुआ । तब यह संस्था सेठिया गवाड़में थी। तत्पश्चात् यह शाला सूनारोंके मोहल्ले में चली गई और अद्यावधि वहीं पर स्थित है । नाहटाजी एकमात्र इसी शालामें पढ़े । आपने पंचम कक्षा इसीसे उत्तीर्ण की और छठी कक्षामें शालीय अध्ययन समाप्त हो गया। श्री नाहटाका शालीय-जीवन अत्यन्त श्लाघ्य था । आप परिश्रमी छात्र थे और हमेशा पूरा गृहकार्य करके शाला जानेका स्वभाव था। आपकी तत्कालीन अभ्यास पुस्तिकाओंके सुरक्षित संग्रहको देखनेसे प्रतीत १. श्री भंवरलाल नाहटा : लेख । जीवन परिचय : २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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