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________________ ज्ञान-प्रवण तथा भक्ति-प्रवण श्री भँवरलालजी नाहटा अध्यात्म योगी मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' सत्ता, सम्पत्ति व शारीरिक सौन्दर्य व्यक्तित्वको बहिर्मुखता है। साहित्य, साधना तथा अनवरत स्वाध्याय अन्तरंग व्यक्तित्वकी अभिव्यंजना है। अपूर्ण व्यक्ति बहिर्मुखताको प्रधानता देता है । साधक सदैव अन्तरंगमें रमण करता है। उसका दर्शन नेत्र-सापेक्ष नहीं होता । उसका श्रवण कर्णनिरपेक्ष होता है । उसका चिन्तन किसी अज्ञातका तलस्पर्शी होता है। वह प्रतिक्षण अन्वेषण-परायण रहता है। स्थूलतामें वह कभी विहार नहीं करता। उसकी वाणी अधिकांशतः मौन होती है, किन्तु, जब वह मुखर होती है, अनेक नये आयाम प्रस्तुत कर देती है। उसकी लेखनी उस निराकारताको साकार करती है और सहस्रों-सहस्र विद्वानोंको प्रीणित कर देती है। साधनाके उत्तुंग शृंगसे स्वाध्याय एवं प्रज्ञाके उभय तटोंके बीच साहित्यकी मन्दाकिनी कल-कल रवसे प्रवाहित होती है। जैनधर्मके प्रमुख उपासक श्री भंवरलालजी नाहटा ऐसे ही मनीषी हैं, जो श्रद्धाको गहराई में उतरकर अन्वेषणके माध्यमसे अनेक बहुमूल्य रत्न पाने में सफल जैनधर्मको पहुँच प्रागैतिहासिक है। चौबीस तीर्थंकरोंके युगमें इस धर्मने अनेक प्रकारसे उद्वर्तन पाया है। किन्तु, समयकी प्रलम्बताने बहुत सारे महनीय कार्योंको अतीतकी परतोंके नीचे दबा दिया है । आज उन परतोंको हटाकर यथास्थितिका उद्घाटन अपेक्षित है। इस कार्य में मूत्तियाँ, अभिलेख, सिक्के, ताम्रपत्र, चित्र, स्तूप तथा उत्कीर्ण स्तम्भ, प्राचीन शास्त्रोंके पृष्ठ आदि योगभूत होते हैं। किन्तु, इस सामग्रीके ज्ञाता, उसके अनुशीलक तथा निर्णयमें सक्षम व्यक्ति विरल ही होते हैं। इतिहासका यह सबसे जटिल पहलू होता है, पर, जब इसके निष्कर्ष प्रस्तुत होते हैं, सर्वसामान्यको भी अतीव आह्लाद होता है । प्रसिद्ध इतिहासकार श्री भंवरलालजी नाहटाने इस क्षेत्रसे संबद्ध अनेक जटिलताओंको अपनेपर ओढ़कर जैन-इतिहासके अनेक अनुयाटित रहस्योंको सप्रमाण प्रस्तुत किया है। इस महनीय कार्यके पीछे कई दशकोंका उनका अथक श्रम साकार हुआ है। कला, पुरातत्त्व, साहित्य, चित्र, तीर्थस्थान, मूत्तियाँ, सिक्के, लिपि आदिसे सम्बद्ध जैन-परम्पराके किसी भी प्रश्न उपस्थित किये जानेपर श्री नाहटाजी द्वारा तत्काल प्रामाणिक उत्तर प्रस्तुत हो जाता है। तिथि, संवत आदिका गणनात्मक ब्यौरा भी साथ ही अभिव्यक्त हो जाता है । प्रायः तिथि, संवत् आदि कण्ठाग्र कम ही मिलते हैं, पर, नाहटाजी इसके अपवाद हैं। किसी भी पहलूसे सम्बद्ध सन्दर्भ-पद्य भी साथ ही उपस्थित हो जाते हैं। प्रज्ञा पारमिताका ऐसा सुखद योग उसे ही प्राप्त होता है, जिसे ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम प्राप्त हो। श्री भंवरलालजी नाहटा देव, गुरु व धर्ममें हार्दिक अनुरक्ति तथा श्रद्धाके आधारपर उस विरल योगको प्राप्त करने में सफल हैं। श्री भंवरलालजी नाहटाका ज्ञान छलकनेवाले घटकी तरह नहीं है। विज्ञापन-भावनासे सर्वथा दूर रहकर अनवरत ठोस कार्यमें वे एकाग्र रहते हैं। दिखावे व आडम्बरसे सर्वथा दूर हैं । वे वयसे प्रौढ़ हो चुके हैं, तो ज्ञान व अनुभवोंसे भी प्रौढ़ हैं। नियमित धार्मिक चर्यामें अपनेको संयोजित रखते हैं । नाना स्तवनोंका जब तन्मय होकर संगायन करते हैं, तो किसी भी भक्त हृदयकी सहज स्मृति हो उठती है। ज्ञानप्रवणताके साथ सहज हार्दिक भक्ति-प्रवणताका सुयोग मणि-कांचनके योगका विलक्षण उदाहरण है। ४०० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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