________________
लिखकर लेख रूप में प्रकाशित कर देते हैं। कोई भी ज्ञान भंडारकी सूची या ग्रंथ जो उनके दृष्टिपथ से निकला है देखते ही विदित हो जायगा क्योंकि उसपर उनके संशोधन टंकण किए रहते हैं।
हिन्दी साहित्यके इतिहास या जैन साहित्यपर जो भी अन्धानुकरणसे लिखनेकी प्रवृत्ति और बिना ग्रन्थ देखे उस विषयकी जानकारी या उल्लेख करनेकी आदत प्रायः साहित्यकारोंमें देखी जाती है आपके लेख उस विषयकी मूलभ्रान्तियां दूर कर वास्तविक सत्य प्रकट करनेवाले होते हैं अतः साहित्यिक रेस मैदानमें सरपट कलम चलानेवालोंको आपके आलोचनात्मक चाबुकसे सतर्क रहना पड़ता है।
बचपनसे ही आपकी ज्ञानजिज्ञासा इतनी प्रबल थी कि सभी विषयके ग्रन्थोंको पढ़ डालते और धार्मिक व तत्त्वज्ञानके विविध ग्रन्थोंपर साधु-मुनिराजोंसे चर्चा-जिज्ञासा करते एवं जैन समाजके सुप्रसिद्ध प्रबुद्ध बहुश्रुत कुंवरजीकाका ( कुंवरजी आणंदजी-भावनगर ) से प्रतिमास अनेक प्रश्न किया करते जो जैनधर्म प्रकाशमें नियमित प्रकाशित होते रहते थे । तीर्थयात्रा और साहित्यिक भाषाओंका आपको खूब शौक है । प्रतिवर्ष समय निकालकर जाते-आते रहते हैं जिससे आपका सार्वभौम अनुभव अभिवद्धित होता है। सामायिक-श्रुतसामायिक
आपको नियमित सामायिक करनेकी प्रवृत्ति बचपन से ही है। यों तो बचपनसे ही पर्युषणादि पर्वाराधन सामायिक प्रतिक्रमणादिकी प्रवृत्ति १०-११ वर्षकी अवस्थासे ही थी पर १४-१५ वर्षकी उम्रमें १९८२ में कलकत्तामें नित्य सामायिक करते व सरबसुखजी नाहटाकी प्रेरणासे गौतमरास-शत्रुञ्जयरास आदि भी कण्ठस्थ हो गए थे। दो प्रतिक्रमण पूरे व पंचप्रतिक्रमणका कुछ भाग जीवविचार नवतत्त्व, ३५ बोल तो पाठशालामें ही पूरा हो चुका था । कलकत्तेमें बाबूलाल जी समपुरिया जो प्रज्ञाचक्षु थे-को स्वाध्याय करानेके हेतु कर्मग्रंथ-संग्रहणी-उपदेश प्रासाद आदि अनेक ग्रंथोंका पारायण हो गया। श्री जिनकृपाचंद्रसूरिजीके चौमासे में सं० १९८५ में हम लोगोंने आगमसार आदि पढ़नेके साथ-साथ अनेक ग्रंथोंका अध्ययन किया। स्कूलमें पढ़ी हुई थोड़ी संस्कृतकी भी पुनरावृत्ति हो गई। व्याख्यानमें सुने हुए विषय संस्कृतादि सुभाषित याद हो जाते व इस प्रकार ज्ञानका विकास होने लगा। सूरिजीके अगाध ज्ञान और चारित्रगुणोंसे प्रभावित होकर उनके गुण वर्णनात्मक काव्य-गहूलियोंका निर्माण भी प्रचुर संख्यामें किया और वे गहूं ली संग्रहमें प्रकाशित हो गये हमारे प्रूफ संशोधनादिका अनुभव तभी सुखसागरजी महाराजके सांनिध्यमें प्रारंभ होता है।
पिताजी इन्हें बचपनसे ही कविसम्राट् कहा करते थे। इस समय स्तवन, गहूली व छत्तीसियों आदिके निर्माणने यह चरितार्थ कर दिया। इसके बाद गद्य लेखनकी ओर विशेष प्रवृत्ति हुई। पहला ग्रंथ इन्होंने विधवा-कर्तव्य लिखा फिर मानव भव दुर्लभता व सम्यक्त्व स्वरूपादि इनकी प्रारंभिक कृतियाँ हैं । नित्य सामायिक व संध्याको प्रतिदिन सुखसागरजीके पास प्रतिक्रमण करनेसे वह अभ्यास चालू हो गया। बीकानेरसे सिलहट जानेपर भी काकाजीने सामायिक प्रतिक्रमणका अभ्यास चालू रक्खा और उस समय श्री बुद्धिसागरसूरिजीके ग्रंथ जो मैंने पारदासे मँगाये थे काकाजीने अभ्यास किया और अध्यात्म ज्ञानकी ओर अभिरुचि बढ़ी। श्रीमद्राजचन्द्र ग्रंथके अध्ययनसे उनके प्रति आदरभाव जागृत हुआ। उनका 'अपूर्व अवसर एवं हे प्रभु हे प्रभु प्रार्थनादि प्रतिक्रमणके पश्चात् गानेसे तल्लीनता उन्हें एक अलग ही लोकमें ले जाती। सिलहटमें मच्छरोंका अत्यधिक उपद्रव था फिर भी सामायिक स्वाध्यायमें वे निश्चित रहते थे। एक बार हमारे मकानके सामने ही भयंकर अग्निकाण्ड हो गया। पास ही हमारा किरासन गुदाम था। पिताजी वहाँ थे, उन्होंने सूचना दी तो काकाजीने कहा, मैं अभी सामायिकमें हूँ जो होगा सो होगा, चिन्ता न करें। थोड़ी देरमें देखते हैं अग्नि शांत हो गई और हमारे मकान गुदाम आदिको कोई आँच नहीं आई। आप
३८० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org