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आपने कष्ट सहिष्णुता और विपत्ति में धैर्य अपनानेका मूल रहस्य जान लिया था। आपकी प्रवृत्ति उन महात्माओंसे मेल खाती थी, जो अपने शरीर आचरणके लिए वज्र से भी कठोर और परदुःखके लिए कुसुमसे भी कोमल थे ।
आप अत्यन्त कर्मठ, कार्यदक्ष व्यक्ति थे । श्रमकी महत्ता आपकी रग-रग में भरी थी । आप कामको भगवदाराधन समझते थे । आपकी दृष्टिमें कोई काम छोटा या तुच्छ नहीं था । पाकशास्त्र, गोदोहन, पशुसेवा, भवन निर्माण एवं मरम्मत, बढ़ईगिरी, सिलाई, कृषिकर्म, खाता-बही तोल जोख, हिसाब पत्र आदि सबमें आपकी अबाध रुचि और अगाध गति थी । आपके कार्य करनेकी एक शैली थी। जिस काममें आप लगते, उसीमें दत्तचित्त हो जाते । आपकी स्थिति साधनालीन योगी जैसी प्रतीत होती थी ।
आप सादा जीवन और उच्च विचारकी साक्षात् प्रतिमूर्ति थे । आपकी वेशभूषा अत्यन्त साधारण और खानपान सात्त्विक था । सम्पत्ति पाकर बौखला जाने वाले व्यक्तियों में से आप नहीं थे, अपितु आप तो उन लोगों में से थे जो अधिक पाकर अधिक गहरे, अधिक विनम्र और अधिक सरल बनते हैं । आपने अपव्ययके नामपर एक पैसा भी कभी व्यय नहीं किया, लेकिन आवश्यकता और परिस्थितिके आग्रह पर लाखों रुपये व्यय कर दिये ।
आपकी वर्णन-शैली अत्यन्त सजीव थी । जब आप कोई अनुभव वृत्त सुनाते तो उसका चित्र सा उभर जाता था । आप असाधारण स्मरण शक्तिके धनी थे । अपने जीवनकी घटनाएँ मिति संवत् के अनुसार आपको याद थीं। परिवार में किस व्यक्तिकी कब मृत्यु हुई, कौन कब उत्पन्न हुआ और कब कहाँ किसका विवाह हुआ आदि तथ्य आपकी अंगुलियों पर थे ।
पुण्यवान जीवके बिना समाधिमरण प्राप्त होना संभव नहीं है । संवत् १९९९ के माघ शुक्ला चतुर्दशी का दिन था । प्रकरण - पुरुष श्री नाहटाजी का वह चौविहार उपवास दिवस था । प्रतिक्रमण करनेके निमित्त आप बाजार से घर पधारे और दीवानखाने में एक तकियेके सहारे बैठ गये । हमारे चरित नायक श्री अगरचन्द - जी नाहटा उस समय किसी साहित्यिक कार्यमें संलग्न थे; पितृश्री को आया देखके प्रतिक्रमण की तैयारी में लग गये । पितृश्री ने फरमाया " प्रतिक्रमण तो करना ही है, पर मेरे हृदय में कुछ वेदना सी हो रही है, अतः थोड़ा तेल ले आओ, मालिश करके फिर प्रतिक्रमण करेंगे !" पितृश्रीकी आज्ञाके अनुसार पुत्रोंने तेलर्मदन किया । श्री शुभैराजजी अंगारोंकी सिगड़ी ले आये और सर्दीका दर्द समझकर सिकताव करने लगे । कुछ समय पश्चात् आपको नींद-सी आने लगी और सेक बन्द कर दिया गया। कुछ क्षण उपरान्त ही श्री अगरचन्दजी नाहटाने आपके शरीरमें हुए एक कम्पनका अनुभव किया और पार्श्वस्थ भाई शुभैराजजी को इसकी सूचना 'हुए पितृश्रीके वस्त्रावृत मुँहको उघाड़कर देखा तो पुण्यात्मा स्वर्ग प्रयाण कर चुकी थी । सहसा किसीको विश्वास न हुआ । श्रीमेघराजजी नाहटा भी झटिति वहाँ गये । डॉ० सूर्यनारायणजी आसोपा भी आये, परन्तु वहाँ केवल पार्थिव शरीर शेष था, हंस उड़ चुका था ।
स्वर्गीय श्री शंकरदानजी नाहटाका जो शरीर अनाथों, कष्ट- पीड़ितों और बेसहारोंका सहारा था; संताप और संवेदनासे अधीर हुए व्यक्तियोंको जो धैर्य और ढाढस दिया करता था; वही आज स्वपारिवारिकों के करुण क्रन्दनको, उनकी असह्य वेदनाको उपेक्षित बनाकर अनसुनी कर रहा था। जिसके वरद हाथोंकी सुखद शीतल छाया नीचे नाहटा परिवार सानन्द फल-फूल रहा था, आज वह महान् वृक्ष ही जैसे गिर पड़ा था और उस अनन्त पथकी ओर मुड़कर चल पड़ा था, मानों किसीके साथ उसकी कोई पहिचान ही नहीं थी । पुण्यवानका चेहरा प्रफुल्लित और मृतशरीर भी मन भावना कान्ति फैला रहा था । ठीक है; मौतका वश केवल पार्थिव शरीर पर है पर वह श्री शंकरदानजी नाहटाकी उस कमनीय कीर्त्तिको नहीं मार सकती ;
१८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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