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________________ शायद ही किया हो। मैंने कई मर्तबा उनके मुखसे सुना है कि वर्षा वर्षेगी तो सभी ठौर ही फिर क्यों तरसना उस हित । सहनशीलता एवं मिठासके तो खीरसागर ही है। स० १९४९ के दिसम्बर मास की बात है जब मैं कान्फेन्स के ११वें अधिवेशन हेतु रेलसे मद्रास जा रहा था तो अहमदाबादसे चढ़ रेलमें, भीड़का कोई पार नहीं, पैर डिब्बेमें बढ़ा ही नहीं पा चुका था हमारे चरित्रनायक श्री नाहटाजी उसी डिब्बेमें विराजमान थे। स्वधर्मी भाईके नाते मैं पूछ बैठा कि आपका नाम - तो प्रेमसे जबाब दिया कि मैंने अगरचन्द नाहटा के हैं। मैं भौचक्का-सा हो कुछ पीछे हटा तो झट मेरा हाथ पकड़ कहा- भाई इतने क्यों चमके ? बात-चीत के दौरान मेरा भी नाम पूछ बैठे। मैं बोला- मेरा विमलकुमार शंका नीमाजवाला । मेरा नाम सुनते ही वे बोले, अरे भाई तुम हो काजी, आओ। एक सीट तुरन्त दे दी । तुम तो बड़े प्रतिभाशाली लेखक व कवि भी हो । जब तक हम बम्बई नहीं पहुँचे बहुत ही आवभगत की । तथा मुझे जबरदस्ती एक दिन के लिए बम्बई में उतार अपने वहाँ ले गये। खानेपर पुनः स्टेशन तक पहुँचाने आये। रेलमें बिठा एक पुस्तक "ज्ञानकी गरिमा" भी भेंट की जो उनके द्वारा ही लिखित है। ओसवाल बन्धुओंको, सभीको भ्रातृवत् प्रेमसे देखते रहे हैं। आप गहरे मिलनसार सज्जन भी हैं। ओसवाल नामसे ही आपको बड़ी रुचि रही है । आप कबके मध्यवर्गी कर्मठ धर्मनेता वर्षोंसे रहे हैं । कम शिक्षा प्राप्त कर भी आपने साहित्य जगत् में खूब धूम मचाई है। श्रमणों में आपसी मनमुटाव उन्हें सदा अखरता रहा है । पर इस तरफ वे कभी भी खींचातानी नहीं करते। कहीं बोलने का अवसर आपको इस बाबत दिया भी गया तो भी आप उसमें नहीं उलझे क्योंकि उन्हें यह मसला प्रिय ही नहीं । जब लाग लपेट ही नहीं रखते तो फिर क्यों उलझें इस उलझन में । उनके विचारोंमें सदा लेखनी व संघ एकताका ही सार होता है । डरना तो उनके जीवन - इतिहास में लिखा ही नहीं भगवान्ने । कान्फ्रेन्सका नाम तो आप लेते पर रुचि उस मार्ग में आपकी नहीं है । फिर भी कान्फ्रेन्सके कोई कर्णधार उन तक पहुँच जाय तो घण्टों चर्चा, विश्लेषण व सहायता भी मनमानी कर देते हैं । रूढ़िवाद, अंधश्रद्धा व मूर्तिपूजाके कट्टर विरोधी रहे ही । निर्गुणवादमें उनकी पक्की आस्था है । टोना-टोटका करना व शीतलामाता या मैसेजी वगैराको पूजना भी उन्हें नहीं सुहाता है। वे पक्के श्रद्धावान है जप व माला के अटूट 1 जैन - अजैन सभी पत्रिकायें व पत्र उनकी सामग्री के लिए लालायित रहते ही दिखे हैं । लिखते तथा भेजते ही रहते हैं । कलम उठाई, कुछ गुनगुनाया, घण्टों में कुछ न कुछ लिख ही देते हैं । आपके ही लेख बड़े समयोचित व एकता के सच्चे मार्गदर्शक रहे हैं। नाम-वासना उन्हें कभी भी प्रिय नहीं पर वे लिखते ही रहे हैं निरन्तर अपना कर्तव्य मानकर ही । आपके यहाँ अपना एक छोटा सा 'सहायता ट्रस्ट' खोल रखा है जिससे कई असहायों व उदीयमान बच्चों को छात्रवृत्ति भी देते हैं आपकी दानप्रियता सदा मूक रही है। जो भी उनतक माँगन गया, खाली कभी नहीं छोटा तथा उल्टे यह उसे रवाना करते हैं कि ये ले जाओ पर किसीको कहना मत । ये हमारे छिपे नवरत्न हैं जो बड़े लाल लाडले माताके पुत्र हैं । आज साठ (६०) से आगे निकल चुके हैं। आज उनके जीवनकी हीरक जयन्तीपर हमारा जैनजगत् एक अमूल्य ग्रन्थका प्रकाशन कर उन्हें ३६० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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