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________________ आठ आने ही देना, हम आपकी जय बोलेंगे। सेठ साहबकी नाको हाँमें बदलनेवाले ही बदल सकते हैं, हरेकके वशकी बात कहाँ ? मैंने संकोचवश कुछ भी नहीं कहा। अब तक तो मल्लाह अपनी नाव नाहटाजीके करीब ही ले आया था। बोला-कोई बात नहीं सेठ साहब, आप कुछ भी मत देना, हमारी नावको तो पावन कर दो। मैं मन-ही-मन राजी हुआ- अब सेठ साहब क्या मना करेंगे? किताबोंमें पढ़ा नौका-विहार आज प्रत्यक्ष कर लेंगे। पर उस दिन तो शायद वह नौका-विहार मेरे भाग्यमें नहीं था क्योंकि मल्लाह यदि मस्त था तो हमारे सेठ साहब भी पूरे अलमस्त थे। बड़े सहज भावसे उत्तर दिया-भई, हमारे धर्ममें नदीके बीच में जाना और उसमें स्नान करना वयं है। उसमें तो जितने कम पानीसे नहाया जाय उतना ही ज्यादा अच्छा माना गया है। तू हमारा पीछा छोड़ दे। और स्वयंने देखते-देखते दो-चार लोटे पानीसे नहाकर धोती बदल ली । मल्लाहने साश्चर्य मेरी ओर देखा । मैं क्या करता? मैंने आँखोंमें ही कह दिया-बन्ध छट्री करो, मैं भी यों ही नहा लेता हूँ। अबको आयेंगे तब मिलेंगे और मैंने तीन डुबकी लगाकर त्रिवेणी-स्नानका फल पाया। प्रयागके बाद नम्बर आया बनारस का । बनारसमें हम एक धर्मशालामें ठहरे। बनारसके संस्कृत विश्व-विद्यालयमें अखिल भारतीय तंत्र सम्मेलन हो रहा था । वहाँ हम दो दिन देर से पहुँचे थे । वहाँ स्थानीय पंडितोंके अतिरिक्त देशभरसे अनेक तांत्रिक और तंत्र-साहित्यके ज्ञाता एकत्र हुए थे, जिनमें काश्मीरके पंडितोंको संख्या अधिक थी। सम्मेलनका संयोजन प्रायः संस्कृतके माध्यमसे ही हो रहा था परन्तु कभी-कभी हिन्दी भी कानोंमें पड़ जाती थी । विद्वानोंके निबन्ध प्रायः संस्कृतमें थे । नाहटाजीका निबन्ध 'जैन तंत्र साहित्य' हिन्दी में लिखा था। उस दिन अभिभाषकोंकी संख्या अधिक होनेसे सभी विद्वानोंसे निबन्धका पूरा पाठ न कर उसका सार बतानेकी प्रार्थना की गई थी। नाहटाजीने भी अपने विस्तृत निबन्धका सार ही पढ़कर सुनाया था ।। बनारसमें संस्कृत विश्वविद्यालयके अतिरिक्त हिन्दू विश्वविद्यालय भी देखा । वहाँ हम डॉक्टर वासुदेव शरण अग्रवालसे (अब स्वर्गीय) मिलने उनके निवास-स्थान पर गये । डॉक्टर साहब अपने काममें जुटे हुए थे । दोनों एक दूसरे को पाकर धन्य हो रहे थे। दो पृथिवीपुत्रोंके परस्पर मिलनेकी उस वेलाका स्मरण आज भी हृदयको आह्लादित कर रहा है । हम वहाँ काफी देर ठहरे थे और तब तक उन दोनोंने अनेक विद्याओंके ओर-छोर माप लिये थे। चलते समय डॉक्टर साहिबने नाहटाजीको अपनी कुछ नवीन कृतियाँ भेंट की और मुझे आशीर्वाद-स्वरूप मेरी डायरीमें एक सूक्ति-सी लिख दी-दृढ़ संकल्पपूर्वक विद्याभ्यासको जीवन-व्रत बनाओ।' वहीं हम भारतके एक और मनीषी डॉ. गोपीनाथ कविराजके दर्शनार्थ गये। बड़ी मुश्किलसे उनके निवासस्थानका पता लगा पाये थे । संयोगकी बात, उस दिन कविराजजीका मौनव्रत था, इसलिए हम उनके दर्शनमात्र ही कर सके, गिरा-ज्ञानसे वंचित रहना पड़ा। हाँ, नाहटाजीके कुछ प्रश्नोंका उन्होंने संकेतसे उत्तर अवश्य दे दिया था। बनारसके काशी विश्वनाथ मन्दिर, भारत माताका मन्दिर, विश्व-विद्यालयका शिवमन्दिर, भारतीज्ञानपीठ, गंगाजीके घाट, विश्वविद्यालय और उसका पुस्तकालय, नागरी प्रचारिणी सभा, सत्यनारायण मानस मन्दिर और शहरकी सँकरी गलियाँ आदि तो आज भी स्मृतिपटपर अंकित हो रही हैं, जहाँ कदम-कदमपर नाहटाजीने मुझे अपने साथ रखा था। बनारससे हम कलकत्ताको रवाना हुए । बहुत लम्बा रास्ता था। बनारससे कुछ नई पुस्तकें ले ही .. व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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