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डा० एल० पी० तेस्सितोरीके परमभक्त और राजस्थानी साहित्यके प्रेमी हैं। उस समय वे हाथरसमें नहीं थे। एक दिन वहाँ रहकर हम लोग आगरा पहुँचे ।
___ आगरा का मुख्य आकर्षण तो ताजमहल ही होना चाहिए ? परन्तु जब ताज देखनेकी बात नाहटाजी के सामने रखी तो बोले-इन पत्थरको इमारतोंको देखने के लिए इतना लालायित होने की क्या जरूरत हैं, ये तो देखेंगे ही। आओ पहले यहाँ के कुछ विशिष्ट व्यक्तियोंसे मिल आयें। ऐसी विरल विभतियोंसे मिलने का सुयोग तो भाग्य से मिलता है। वहाँ सबसे पहले हम सन्मति ज्ञानपीठके उ०अमर मुनि जी के यहाँ मिलने गये। मुनिश्री उस समय बीमार थे । अनेक भक्तों से घिरे मुनिजी नाहटाजोको देखते ही पुलकायमान हो उठे। सबके सामने उन्मुक्त हृदयसे उन्होंने नाहटजी द्वारा सम्पादित जैन शासन और साहित्यको सेवाओंकी प्रशंसा की। अपनी सद्यः प्रकाशित कतिपय कृतियां भी उन्होंने नाहटाजीको भेंट की और परा आतिथ्य-सत्कार किया। वहाँ से विदा होने के बाद अनेक लेखकों, प्रकाशकों तथा पुस्तक-विक्रेताओं से मिलते हुए हम ताज की ओर रवाना हुए। ताज देखा । ताज तो ताज ही है । उसकी प्रशंसामें कितनों ने क्या नहीं कहा? वहाँ थोड़ी देर बैठनेकी, दुबमें लेटनेकी और शांतिसे सोचनेकी तबियत हुई परन्तु हमारे नाहटाजीको इतनी फुरसत कहाँ थी । शामकी ट्रेनसे हो मथुरा रवाना होना था । पर ज्यों-त्यों करके हमने वहाँसे चलकर आगरेका किला भी देख ही लिया।
अगले दिन मथराका भ्रमण किया। तीन लोक से न्यारी मथुरा हमें विशेष लुभा न सकी। कुछेक दर्शनीय स्थान और परिचित लोगों से मिलकर हम शामको ही ट्रेन से प्रयाग के लिये रवाना हो गये।
प्रयाग हिन्दी का गढ़ है। हिन्दी साहित्य सम्मेलनके विशेष अधिवेशनका निमन्त्रण-पत्र नाहटाजीको मिला ही था। हम दोनों वहीं उतरे। सम्मेलनमें राष्ट्र के ख्यातिप्राप्त अनेक विद्वानोंका जमघट लगा था। विद्वानोंके ठहरने और भोजन आदिकी सम्पूर्ण व्यवस्था सम्मेलनकी ओरसे की गई थी। सम्मेलन तीन दिन चला । कहना न होगा, वहाँ प्रादेशिक भाषाओंके साथ हिन्दीके सम्बन्धोंपर राजस्थानीको लेकर नाहटाजोने ही अपना सारगर्भित भाषण दिया था। मुझे पहली बार वहाँ हिन्दी क्षेत्रीय उतने विद्वानोंके दर्शनलाभका अवसर मिला । स्वयं नाहटाजीने अनेक विद्वानोंका परिचय करवाया। श्री नर्मदेश्वरजी चतुर्वेदीके यहाँ नाहटाजीने आतिथ्य स्वीकार किया था । एक दिन विश्वविद्यालय भी गये जहाँ डाक्टर रामकुमार वर्माने अपने विद्यार्थियोंके लिए राजस्थानी भाषा और साहित्य' पर नाहटाजीसे साग्रह एक भाषण करवाया।
प्रयागमें भी हम अनेक साहित्यिक संस्थानों, प्रकाशकों और पुस्तकालयों आदिमें गये। सरस्वती प्रेस, हिन्दुस्तानी एकादमी और विश्व-विद्यालयीय पुस्तकालयमें मन कुछ विशेष रमा।
एक दिन हम त्रिवेणी-स्नानके लिए गये। वहाँ एक रोचक घटना घटी । ज्योंही हम स्नान करने पानी की ओर बढ़े कि एक मल्लाह हमारे पास आया और बोला-सेठ साहब, आपको त्रिवेणीकी सैर कराएं । एक-एक रुपया लूगा, आनन्द आ जायेगा। नाहटाजीने ना कर दी। मल्लाहने कहा-दोनों का डेढ़ रुपया दे देना, बस ! नाहटाजीने कहा-नहीं भाई, हमें सैर नहीं करनी है । मल्लाहने पैसे कुछ और कम किये-कोई बात नहीं एक रुपयेमें दोनोंको का बिठा लूगा । पर नाहटाजीने ना कर दी सो कर ही दी। मल्लाह भाँगकी मस्ती में था । वह बोला-सेठ साहब, त्रिवेणी में तो संगम-स्थल पर जानेका ही माहात्म्य है । आप तो बहुत दूरसे पधारे हैं, फिर दो-चार आनेके लिए यह मौका क्यों खो रहे हैं ? लो, आप
३५४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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