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________________ नौकरी करनी चाहिए, पर इच्छा थी कि मैं एम. ए. भी करूं। नाहटाजी उन दिनों सार्दूल राजस्थानी रिसर्च इंस्टीच्यूटके डाइरेक्टर थे। उनके सामने समस्या रखी-पढ़ाई करूं या नौकरी? नाहटाजीने तो तत्काल हल निकाल दिया--'दोनों।' मेरे 'कैसे? के प्रत्युत्तरमें उनने कहा हमारी इंस्टीट्य टमें एक लिपिकका स्थान रिक्त है। तुम उसमें अपनी पढ़ाईके समयके अतिरिक्त सुबह अथवा शामको कुल मिलाकर प्रतिदिन छह घण्टे काम कर दिया करो और पढ़ाई भी चालू कर दो। मेरी खुशीका पार नहीं था। सोना और सुगन्ध दोनों अनायास सुलभ हो रहे थे। उस दिन कालेजमें एडमिशन लेनेकी अन्तिम तिथि थी। तत्काल कालेज पहुँचकर फीस जमा करा दी और एम. ए. (प्रीवियस ) हिन्दीमें एडमिशन ले लिया। उन दिनों संस्था में श्री मुरलीधरजी व्यास और बदरीप्रसाद साकरिया काम किया करते थे। व्यासजी राजस्थानी महावरोंका संकलन कर रहे थे और साकरियाजी संस्थाकी मुखपत्रिका 'राजस्थान भारती'का संपादन किया करते थे और मुझे दोनों विद्वानोंका सान्निध्य और उनके साथ काम करनेका सुयोग प्राप्त हुआ। राजस्थानी भाषा और साहित्य के प्रति आकर्षण भी मुझे तभीसे हुआ। मैं प्रातः सात बजेसे दोपहरके एक बजे तक संस्थामें काम करता और दो बजे जब मेरी पढ़ाई शुरू होती, मैं कालेज में होता था। कालेजका पुस्तकालय बड़ा समृद्ध है। अपने पाठ्यक्रमको अधिकांश पुस्तकें वहींसे लीं परन्तु नाहटाजीसे भी इस सम्बन्धमें मुझे यथेष्ट सहायता प्राप्तहुई। [ ७ ] दो वर्ष और बीते और मेरी एम. ए. की धारा पूरी हो गयी। नाहटाजी का आशीर्वाद लेने गया तो उन्होंने कहा--लगे हाथों पी-एच. डी. भी कर डालो, विषय और सामग्रीका अपने पास भण्डार भरा है। मनमें इच्छा जागी और कुछ ही दिनोंमें वह बलवती भी हो गयी--पी-एच. डी. भी की जाय। पर निर्देशन कौन करे । सौभाग्यकी बात, उस समय तक राजस्थान तथा राजस्थानीके मूर्धन्य विद्वान् और साहित्यकार प्रा० नरोत्तमदासजो स्वामो उदयपुर से सेवामुक्त होकर यहाँ लौटकर आये थे। उन्होंने कृपापूर्वक मुझे अपने निर्देशनमें शोध प्रबन्ध लिखनेकी अनुमति दे दी। नाहटाजी और स्वामीजी की सलाहके ब विषय तय हआ-महाकवि समयसुन्दर और उनकी राजस्थानी रचनाएँ। महाकवि समयसुन्दरके साहित्य की खोजके कामसे ही नाहटाजीने अपना साहित्यिक जीवन प्रारम्भ किया था। उन्होंने अपने पास उपलब्ध एतद्विषयक सम्पूर्ण सामग्री मुझे जिस स्नेह और उदारताके साथ एक ही बारमें उपयोगके लिए दे दी उसका वर्णन शब्दातीत है । महाकविके जीवन और साहित्यके सम्बन्धमें नाहटाजीको प्रभूत ज्ञान है और वे मुझे भरसक सहयोग भी देते रहे हैं। यह सोचकर स्वामीजी मेरे कामके सम्बन्धमें निश्चिन्त हो गये थे । विषय का रजिस्ट्रेशन राजस्थान विश्व-विद्यालयसे करवाया गया। अब मेरा शोध-कार्य चाल था। [ ८ ] इसी बीच सन् १९६३ में मैं राजकीय सेवामें चला गया । डूंगर कालेजमें पुस्तकालय-लिपिक के रूपमें मेरी नियुक्ति हो गयी। सन् १९६४ के मार्च माहमें मारवाड़ी सम्मेलन, बम्बईका स्वर्णजयन्ती महोत्सव मनाया जानेको था । निश्चित तिथिसे दो-तीन दिन पूर्व नाहटाजीका एक कर्मचारी डुगर कालेजमें मेरे पास आया-आपको ना हो तो आज दोपहरको नाहटाजीसे अवश्य मिल लें । वे आज ही बम्बई जा रहे हैं। छुट्टीका भी प्रबन्ध करके आयें, लगभग दस दिन लग सकते हैं। पहली बार महानगरी बम्बई जानेका अवसर मिल रहा था। यात्राका प्रयोजन बिना जाने भी कुतूहलवश मैंने छुट्टो मन्जूर करवा ली और नाहटाजीके ३५२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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