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पहुँच जाते। उस समय तक उनका लेखक-जिसे बोल-बोलकर वे अपने लेख लिखवाया करते थे-आ जाता। उन दिनों श्री जेठमल उनके लेखादि लिखनेका काम किया करते थे। रातके दस बजे तक उनका यह काम चलता रहता। तत्पश्चात् उनके सोनेका समय हो जाता और वे अपने साधना-सदनसे शयनागारको चल देते।
[ ४ ] अब तक पुस्तकालयमें नाहटाजीके सान्निध्यमें बैठा मैं केवल वहाँ पड़ी पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओंकी फाइलें ही देखता रहता था। इच्छा होती थी कि नाहटाजी मुझसे कभी किसी कामके लिए कहें और उसे मनोयोगपूर्वक करके अपनेको धन्य मान । पर उनने कभी किसी कामके लिए मुझे नहीं कहा । नाहटाजी अपने काममें व्यस्त रहते और मैं अपनी लगनमें मगन । पर यदा-कदा थोड़ी-थोड़ी बातचीत होती तो मुझे लगतावे मुझपर अतीव प्रसन्न हैं। सोचता-शायद नाहटाजी मुझे अभी केवल जमकर बैठने की ट्रेनिंग दे रहे हैं । दिन बीते जा रहे थे।
छुट्टियोंमें मैं प्रायः दिनभर ग्रंथालयमें बैठा रहता, नाहटाजीको उपस्थितिमें भी और उनकी अनुपस्थितिमें भी। पुस्तकालयमें दिनभरमें अनेक तरहके लोग आते-मजदुरसे लेकर मिलमालिकों तक, स्कूलके विद्यार्थियोंसे लेकर युनिवर्सिटीके स्कालरों तक, अनपढ़से लेकर प्रकांड पंडितों तक; परिचित भी और अपरिचित भी। सब अपनी-अपनी समस्याओंके साथ आते और जब वे लौटते तो उनके साथ होता उनकी समस्याओंका समाधान और नाहटाजी की आत्मीयताका भाव ।
अब नाहटाजीका साहचर्य मेरे लिए पुस्तकालय तक ही नहीं रह गया था। पुस्तकालयसे बाहर भी यत्र-तत्र वे मुझे अपने साथ ले जाने लगे थे। बीकानेरमें नाहटाजी के साथ-साथ मैं अनेक विशिष्ट और सार्वजनिक सभा-सोसाइटियों, संतजनोंके व्याख्यानों और सम्मेलनोंमें गया हूँ। मैंने देखा है, ऐसे अधिकांश स्थानोंपर नाहटाजीको भी बोलना पड़ा है-कभी अभिभाषकके रूपमें, कभी वक्ताके रूपमें, कभी अतिथिके रूपमें और कभी-कभी सभापतिके रूपमें भी । श्रोताओंको मुग्ध कर लेनेका नाहटाजीके पास जैसे कोई मन्त्र ही है। अपनी बातको, बिना विषयांतर हुए, बुलंदगीके साथ कहने में वे बड़े कुशल हैं।
नाहटाजोकी डाकमें ढेर-सारी चिट्ठियाँ आती है। एक दिन मैंने उनके नाम आये पत्रोंकी अव्यवस्थित स्थितिकी ओर इंगित किया तो बोले- "थे केई दिना-सू काम-रै वास्तै कैया करो हो, ओ काम थे कर दो। आं सगला पत्रां-नै आं-रै लेखकां-रै नांव-सूअकारादि क्रम सूजचाय-र राख दो।" नाहटाजीने पहली बार अपने कामके लिए मुझसे कहा था । पत्रिकाएं छोड़कर मैं पत्रोंकी ओर मुड़ा। काम बड़ा रुचिकर था। मैं पत्रोंको छांटने लगा। पत्रोंको पढ़नेकी मुझे पूरी छूट मिल चुकी थी। हजारों पत्रोंमें विशिष्ट-विशिष्ट लोगोंके लिखे अनेक महत्त्वपूर्ण पत्र मैं पढ़ लेता और फिर उन्हें यथाक्रम रख देता। पत्र क्या थे, नाहटाजोके दर्पण थे। अधिकांश पत्र साहित्यकोंके ही होते थे, परन्तु अन्य लोगोंके पत्र भी पर्याप्त मात्रामें उनके पास आते रहे हैं। पत्रोंमें बधाई, कृतज्ञताज्ञापन, शंका-समाधान, नवीन ज्ञातव्य और प्रशंसा-जैसे स्वर प्रधान होते । मैंने तन्मय होकर उस समय तकके उपलब्ध उनके अधिकांश पत्रोंको यथाक्रम कर दिया। कहनेकी आवश्यकता नहीं कि नाहटाजीको मेरा काम पसन्द आ गया था। फिर तो वे मुझे सपारिश्रमिक काम भी देने लग गये थे।
छुट्टियां बीत चुकी थीं। मैं बी. ए. की परीक्षामें उत्तीर्ण हो गया था। अब परिस्थिति थी-मुझे
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३५१
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