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प्रकारसे हमारी साहित्य-निधि हमारे हाथोंमें से पर्याप्त संख्या में चली गई । वर्तमानमें भी हमारे अनेकों हस्तलिखित ग्रन्थ-भण्डार असुरक्षित एवं उपेक्षित स्थिति में ही पड़े हैं।
हमारी साहित्य-सम्पत्तिको इस प्रकार की उपेक्षित स्थितिमें जिन व्यक्यिोंने इन हमारे ज्ञान-भण्डारों एवं हस्तलिखित ग्रन्थोंकी रक्षा करनेके कार्यमें अग्रगण्य भाग लिया है उन्होंने धर्मसंघ और साहित्य रक्षाकर हमारे ऊपर अत्यन्त उपकार किया है। इस दिशामें श्री नाहटाजीने जो विशेष रुचि दिखाई है और हमारी साहित्यविरासतको सुरक्षित रखनेका जो कष्ट उठाया है, उसके लिये वे धन्यवादके पात्र हैं। श्री नाहटाजीने साहित्य-संशोधन एवं साहित्य-सृजनके क्षेत्रमें जो कार्य किया है, वह यदि नहीं किया गया होता और मात्र प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों की रक्षा हेतु जो कार्य किया है उतना ही करते तो भी यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि इनकी सरस्वती-सेवा सदैव स्मरणीय ही बनी रहती । इनके सतत प्रयत्न से कितनी ही हस्तलिखित प्रतियाँ सुरक्षित रहकर विद्वानों के लिये सुलभ हो सकी हैं।
श्री नाहटाजीकी विद्या साधनाके कार्यकलापपर विचार करते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि विद्यालय, महाविद्यालयका विशेष अध्ययन किये बिना ही एक निष्ठावान विद्या-सेवी बननेकी इनमें क्षमता रही है। यश-कीर्ति पूर्ण सफलता प्रदान करा दे ऐसी विद्यारुचि, सूझबूझ एवं कार्यनिष्ठा तो मानों आपको बचपनसे ही पुरस्कारस्वरूप प्राप्त थी जिसका आप, उत्तरोत्तर अधिकाधिक लाभ लेकर अपने विकासकी साधना करते हुए भी आप अपनी ६० वर्षकी वृद्ध आयुमें भी इसे ( साधना को ) अखण्डरूपसे चालू रखे हुए हैं, यह प्रसन्नता की बात है । जब कभी भी देखा जाय तो आप हस्तलिखित प्रतियोंकी खोज करने, इनकी सुरक्षा करने में ही लगे मिलते हैं। आप संशोधित एवं सम्पादित तथा प्रकाशित धार्मिक, सामाजिक लेख लिखने अथवा विद्यार्थियों एवं शोधकार्य करनेवाले तथा जिज्ञासुओंको मार्ग-दर्शन किंवा सहायता हेतु उन्हें आवश्यक सामग्री देनेके कार्यमें सदैव लगे हुए ही मिलते हैं। यह है आपके विद्यानुरागके भाव । इस हेतु व्यक्त की जा रही आपकी इस प्रकार की उत्कट प्रवृत्ति, आदर्श एवं श्लाघनीय है।
श्री नाहटाजीका परिपक्व विद्यानुराग न होता तो एक व्यापारीके रूपमें ये लक्ष्मीके रंगमें रंगे जाकर विद्यानुरागके दुर्गम क्षेत्रको कभीका छोड़ देते। व्यापार चलानेके लिये ये सुदूर आसाम प्रदेशमें जा बसे और वर्षों तक वहां रहे थे । किन्तु आपके अन्तरमें विद्याकी ओर गहरे अनुरागका एक ऐसा स्रोत बह रहा था कि जो व्यापार-सम्पादन करते हुए मुरझाने की अपेक्षा सतत प्रवाहित होता रहा । इतना ही नहीं, जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया वैसे-वैसे ही आपके हदयमें व्यापार-वत्ति कम होती गई और नुरागको भावना दिनोंदिन ऐसी प्रबल होती गई कि अन्तमें आपने इसे अपने जीवन का ध्येय ही बना लिया। श्री नाहटाजी एक सुप्रसिद्ध विद्वान्के रूपमें जो गौरव प्राप्त कर सके, इसका कारण यही है।
श्री नाहटाजीने अनेकों प्राचीन ग्रन्थोंका संशोधन एवं सम्पादन कर उनका उद्धार किया है। इसके उपरान्त भो आपने जैनसंस्कृति और इतिहासके अनेक प्रसंगोंपर प्रकाश डालते हए साहित्यका सृजन किया है। प्राचोन साहित्य सम्बन्धी सामग्रीका संग्रह करनेकी आपका प्रवृत्ति के कारण ही बहुमूल्य साहित्य सुरक्षित रह पाया है। यह सब आपके विद्यानुरागका ही परिणाम है ।
श्री नाहटाजीकी विद्योपासनाकी एक अन्य विशेषता भी है जिसका यहाँ वर्णन कर देना उचित होगा। प्राचीन साहित्य और कला का संशोधन, सम्पादन-प्रकाशन किंवा संरक्षण मर्यादित होता है और जनोपयोगी लेखन-प्रवृत्ति तक यह भाग्य से ही विस्तृत हो सकता है। किन्तु, श्री नाहटाजीकी बात अलग है । आप, समस्त मत-मतान्तरों वाले जैनसंवोंको स्पर्श करते हए धार्मिक, सामाजिक किंवा शिक्षण-साहित्य
३४८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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