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________________ ग्रन्थ-संपादन एवं पाठशोधके क्षेत्र में उन्होंने नवीन दिशानिर्देश किया है और राजस्थानअंचलके दार्शनिक, धार्मिक, कलात्मक एवं लोकसाहित्यपरक ग्रन्थों का उद्धार कर उन्होंने भारतीयविद्या के प्रकाशनमें अभूतपूर्व योग दिया है । मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह ऐसे महान् साहित्यसेवी एवं भारतीयविद्याविद् श्रीअगरचंद नाहटा को दीर्घायु प्रदान करे । नाहटाजीका अभिनन्दन जैन साप्ताहिक, वर्ष ६८ अंक २२ कोई व्यक्ति जन्मसे वणिक् व्यवसाय के साथ व्यापारी होते हुए भी जीवनपर्यन्त विद्यासेवी हो, ऐसा सुयोग बहुत ही कम देखने में आता है । इसपर भी अर्थपरायण और निरन्तर व्यापार-परायण जैनगृहस्थ वर्ग में धार्मिक एवं अन्य प्राचीन साहित्य और भाषा के अध्ययन, संशोधनको जीवन-व्रत बनाकर निष्ठापूर्वक इसमें निमग्न हो जानेवाले व्यक्ति तो बहुत हो विरले दृष्टिगत होते हैं । राजस्थान और जैनएक विरल व्यक्ति हैं, जिसकी सतत बनकर हर एक का प्रशंसा पात्र बनने समाजमें सुप्रसिद्ध विद्वान् श्रीयुत अगरचन्द नाहटा इसी प्रकारके विद्या साधना अन्य लोगोंके लिये प्रेरणादायक उदाहरण स्वरूप योग्य है । जैन-संघका विरासती ज्ञान, इसके प्राचीन एवं अर्वाचीन ज्ञानभण्डारों द्वारा संगृहीत हस्तलिखित प्रतियों में सुरक्षित है यह बात सर्वविदित है । जिस प्रकार से इन समृद्ध ग्रन्थसंग्रहोंमें जैन एवं जैनधर्म के समस्त मतों (फिरकों) का धर्म - साहित्य सुरक्षित रखा गया है उसी प्रकारसे अन्य धर्मोका एवं सामान्य किंवा सर्वग्राही विद्याओंकी समस्त शाखाओंका संस्कृत, प्राकृत एवं अन्य लोक भाषाओं में रचे गये साहित्यको भी प्रचुर मात्रा में सुरक्षित रखा गया है । क्रियाके आचरण के समान ही ज्ञानकी साधनाको भी जैन धर्ममें जीवन-साधनाका एक अनिवार्य अंग होने के कारण इसे आत्म-साधना में प्रथम स्थान देकर साहित्य सृजन एवं रक्षणको धार्मिक कर्तव्य के समान ही महत्त्व दिया गया है। यही कारण है कि स्थान-स्थान पर जैन-भण्डारोंकी स्थापनाएँ की गई और समस्त विद्याओंकी पुस्तकोंकी रक्षा करना एक श्लाघनीय परम्परा, प्राचीन कालसे ही जैन संघ में चली आ रही है । इस प्रकारसे जैनसंघने समस्त भारतीय साहित्यकी और भारतीय साहित्यके ही एक अंग-स्वरूप जैन - साहित्य की रक्षार्थ जो लगन व्यक्त की है, उसकी अपने देशके महत्त्वपूर्ण तथा अन्य देशों के विद्वानोंने मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है । इतना होते हुए भी मध्ययुग में और विशेषकर जबसे अपने देश में अंग्रेजी राज्यकी स्थापना हुई उससे पूर्व के वर्षों में एवं अंग्रेजी शासन कालके प्रारम्भिक समय में भी हमारी लापरवाही एवं हमारे अज्ञान के कारण स्थान-स्थानपर हजारों हो हस्तलिखित प्रतियाँ दीमक, वर्षा किंवा सुरक्षा की समुचित व्यवस्था के अभाव के कारण नष्ट हो गईं। अनेकों हस्तलिखित ग्रन्थ हमारे अज्ञानके कारण विदेश चले गये । इस व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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