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इतिहासकारोंकी भारतीय विद्या विषयक भ्रान्त मान्यताओंका खण्डन भी किया किन्तु तब हमारा स्वाभिमान खो गया था। हम अपने भारतको अपनी दृष्टिसे नहीं अल्बेरूनी, टाड, कनिंघम और प्लाटकी दृष्टिसे देखने में गर्व अनुभव कर रहे थे। फलतः अपनी सांस्कृतिक, कलात्मक एवं शैक्षणिक परंपराएँ हमने खो दी। दूसरेके संकेतपर हमने अपनी मणियाँ लुटा दी और दूसरेका कांच बटोरते फिर रहे हैं।
फिर भी, बीसवीं शतीमें भारतीय नवजागरण हआ और यहाँके मनीषियोंने उसे समझा। भारतीय विद्याको व्याख्या उन्होंने नए सिरेसे, नए ढंगसे, नए ही रूपमें संसारके समक्ष रखी । स्वामी विवेकानन्द तथा डॉ. राधाकृष्णन जैसे मनीषियोंने भारतके प्राचीन दर्शनकी महत्ता प्रतिपादित की। पश्चिमी देशोंमें जाकर उन्होंने भौतिकतासे दृप्त अहंकारो जातियोंको बतलाया कि भारतीय दर्शन एक शक्तिशाली जीवन एवं प्रबुद्ध जातिका दर्शन है, उसमें संसारके समस्त प्राणियोंके लिए अपार करुणा है, कोटि-कोटि प्राणियोंको शाश्वत शान्तिका संदेश देनेकी क्षमता है ।
प्रजातन्त्र, गणतन्त्र, साम्यवाद आदि शासन-प्रणालियोंको अद्यतन माननेकी पश्चिमी प्रवृत्तिकी विडंबना डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल तथा श्रीपाद अमृत डाँगेने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थों ( हिन्दू पॉलिटी, भारत ......"साम्यसंघ"") में की है। भारतके प्राचीन मालव-कठ आदि गणों और गणसंघोंका प्रामाणिक विवेचन डॉ० जायसवालने Hindu Polity में खूब विस्तारसे किया है। श्री डाँगने वैदिक युगमें साम्यसंघकी स्थितिका परिचय दिया है।
इसी प्रकार डॉ० पी. वी. कणेने 'हिन्दू धर्मशास्त्र' लिखकर लोगोंका ध्यान इस ओर आकृष्ट किया कि हमारा धर्म रूढ़िग्रस्त नहीं रहा है। समयके अनुसार उसमें अपेक्षित परिवर्तन होते रहे हैं। ग्रन्थके 'कलिवयं' प्रकरण में यह विवेचन देखा जा सकता है । इसके अतिरिक्त भारत की प्राचीन मूर्तिकला, चित्रकला, स्थापत्यकला, संगीत कला आदि की ओर भी विद्वानों ने ध्यान आकृष्ट किया। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, डॉ. मोतीचन्द्र, डॉ० भगवतशरण उपाध्याय, आनन्दकुमार स्वामी, प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी प्रभ ति विद्वानों और पुरातत्त्वविदोंने अपने ग्रन्थोंमें भारतीय पुरातत्त्वके संदर्भमें जिन तथ्योंका प्रतिपादन किया, उनसे भारतीय सभ्यताकी उन्नति और गुरुता सिद्ध हुई और संसारके अन्य देशोंसे भी, यहाँ की उन्नत संस्कृति एवं कलाका परिचय पाने हेतु विद्यार्थी आने लगे। आज भारतके विश्वविद्यालयोंमें सैकड़ों पश्चिमी देशवासी छात्र Indology ( भारतीय विद्या ) विषयमें अनुसंधान कार्य कर रहे हैं।
खेदके साथ कहना पड़ता है कि हमारी जिस उन्नत प्राचीन संस्कृतिको विदेशी छात्र अधिकसे अधिक समझ लेनेकी चेष्टा कर रहे हैं, हम उसके ज्ञानसे अछूते हैं। न हम अपनी प्राचीन भाषाओंसे परिचित हैं, न कलासे । हमारे प्राचीन ग्रन्थ हैं , हमारे मठ-मन्दिर. स्तुप और उपाश्रय हैं. हमारे देवी-देवता हैं, फिर भी हम उन सबसे अपरिचित हैं । विदेशी लेखक हमें उनके बारे में बताएँ, यह कितनी लज्जाकी बात है। उक्त भारतीय विद्वानोंने अपने ग्रन्थोंके माध्यमसे हम भारतीयोंको आत्मपरिज्ञान कराया है। राजस्थानके प्रसिद्ध भारतीय विद्याविद् श्री अगरचन्द नाहटा भी इसी श्रेणीके विद्वान् हैं। उनका कर्तृत्व भारतीय विद्या का स्वाभिमानपूर्ण वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करता है।
अपने बचपनसे ही मैं देखता आ रहा है कि भारतको सभी प्रसिद्ध पत्रिकाओंमें अगरचन्द नाहटाके प्रशस्त लेख प्रकाशित होते रहे हैं। हिंदी और संस्कृतके विद्वान् लेखकोंने अपने ग्रन्थोंमें कला, साहित्य, संस्कृति, दर्शन आदि विषयोंके विवेचन-संदर्भमें श्रीनाहटाजीका सादर उल्लेख किया है। राजस्थान साहित्यकी गद्य-पद्य विधाओं, लोकसाहित्य तथा लोककलाओंका रूपविकास नाहटाजीने अनेकों लेखों तथा
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३४५
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