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हो जाये तो मैं अन्य बाधाओंको अकेले ही झेल लूँगा । श्री नाहटाजीने उससे पूछा कि पुस्तकें यहाँ उपलब्ध हो जायेंगी क्या ? कहा कि प्राप्त हो जाएँगी कुछ बाजारसे तथा कुछ सेकेण्ड हैण्ड मिल जाती हैं। नाहटाजीने उससे कहा कि पुस्तकों के पैसे मुझसे ले जाना और पुस्तकें खरीद लाना और 'अभय जैन ग्रन्थालय' में पंजीकृत कराके अपने नाम लिखाकर पढ़ाई शुरू कर दो । जब पढ़ाई पूरी हो तो पुस्तकें वापस जमा करा देना ताकि यही पुस्तकें अगले वर्ष अन्य किसी छात्र के काम आ जाएँगी । वह बड़ी प्रसन्नता के साथ बिदा हुआ ।
देखने में तो यह एक छोटी सी बात है परन्तु देशवासियोंको शिक्षित बनानेको दृष्टि से देखा जाय तो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है ।
श्रीयुत नाहटाजी उन इने-गिने व्यक्तियोंमें हैं जिन्होंने भारतीय संस्कृतिकी अमूल्य धरोहर प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों को सुरक्षित करके भारतीय संस्कृतिकी महान् सेवा की है । जब आम लोगों को इस बातका ज्ञान भी नहीं था कि इन ग्रन्थोंका कोई महत्त्व है । मैं स्वयं जब छोटा था उस समय के कई संस्मरण मुझे याद हैं । मेरे पूज्य पिताजी नित्य लीलास्थ गोस्वामी श्रीउद्धवलालजी के संग्रह किये हुए अमूल्य ग्रन्थ अव्यवस्थित रूपसे रखे रहने के कारण आये दिन टूटते फटते जा रहे थे और मेरी माताजी एवं मेरे बहिन भाई आग जलानेके प्रयोगमें इन्हीं टूटे-फटे पन्नों का उपयोग किया करते थे । यह स्थिति सिर्फ मेरे ही घरपर हो ऐसा नहीं, वरन् उस समय प्रायः सभी घरोंमें हस्तलिखित ग्रन्थोंकी यही दुर्गति हो रही थी । उस समय श्री अगरचन्दजी नाहटाने प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोंको संग्रह करके जिस प्रकार सुरक्षित किया है। उसके लिए उनका सारा साहित्य जगत् सदा ऋणी रहेगा ।
श्री अगरचन्द नाहटाकी आम जनतामें प्रशंसा होती है तो वह स्वाभाविक ही है। किसी भी व्यक्ति की प्रशंसा उसके गुणके आधारपर हो होती है । फिर नाहटाजीकी महत्ता एवं प्रतिभा ही ऐसी है जो कोई भी विद्वान् उनकी विद्वत्ताको देखकर नतमस्तक हुए बिना नहीं रहता ।
सरस्वतीके वरद-पुत्र : श्रीअगरचन्दजी नाहटा
श्रीमाधव प्रसाद सोनी, एम० ए० रिसर्च स्कालर
श्री अगरचंदजी नाहटाके कृतित्वका परिचय तो मुझे विगत कई वर्षो से पत्र पत्रिकाओंके माध्यम से था, किन्तु उनके व्यक्तित्वसे परिचित होनेका सौभाग्य मुझे सन् १९६९ में मिला, जब मैं अपनी शोधसम्बन्धी समस्याओं को लेकर बीकानेर उनके निवासस्थानपर गया । स्मित हास, जीवनमें उल्लास, प्राचीन और अर्वाचीन समस्त वाङ्मयके प्रति अनुराग, कर्मठ, बोलनेमें संयत और मृदु-भाषी, मां सरस्वतीकी आराधना में लीन यह साधक भारत के उन साहित्य मनीषियोंमें से है, जिनकी गणना उँगलियोंपर की जा सकती है ।
आज से लगभग ६० वर्ष पूर्व श्री नाहटाजीका जन्म राजस्थान के बीकानेर नगर में हुआ था । यद्यपि अध्ययन सम्बन्धी सुविधायें आपके अध्ययनकालमें विश्वविद्यालयी स्तरकी उपलब्ध नहीं थीं, किन्तु फिर भी आपके विद्या संस्कार प्रबल थे । वीर प्रसवनी धरा राजस्थान और यहाँके रण बांकुरोंकी कहानियाँ तथा गौरव गाथायें अपने पूर्वजोंसे सुनी थीं । फलतः राजस्थानकी संस्कृति और साहित्यने भी आपको
३४२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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