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________________ लिखते समय जब किसी लेखक या साहित्यकारको छेड़ा जाये, या उसके लिखनेके कार्यमें विघ्न-बाधा डाली जाये तो ऐसे में तिलमिलाना और झल्लाना उसका स्वाभाविक कर्म है। मैं भी जरा विचलित हो उठा और वहींसे बैठे-बैठे मैंने पूछा, कौन है ??? उत्तर मिला, 'हँ अगरो।' मैं उस समय अपना सन्तुलन ठीक नहीं कर पाया था। अतः उत्तरको ठीक प्रकारसे सुनकर भी मैं सही निर्णयपर नहीं पहुँच सका और दुबारा जोरसे पूछ ही बैठा, 'अगरा कौन ?? और तभी बड़ी संयत और गम्भीर आवाजमें सुनाई दिया, 'हूँ अगरचन्द ।' मैं ऊपरसे भागकर नीचे आया। उन्हें अपनी छातीसे लगाते हुए मैंने कहा, 'नाहटाजी, आपने तो कमाल ही कर दिया !!! इस समय कैसे आनेका कष्ट किया। अब उन्हें अपने कमरे में ऊपरको ले जाते हए मैंने पत्नीको और सभी बच्चोंको सम्बोधित करते हए बताया, 'अरे-यह तो श्रीअगरचन्दजी नाहटा हैं, राजस्थानके ही नहीं, भारतके एक-बहत बड़े विचारक, साहित्यकार, इतिहासवेत्ता और सबसे बड़े संशोधक है। राजस्थानके गौरव एवं विद्वद्ररत्न श्री दे० न० देशबन्धु - श्री अगरचन्दजी नाहटा अपनी महत्तासे प्रशंसित हिन्दी एवं राजस्थानीके मर्धन्य विद्वान हैं । बीकानेरके ओसवाल समाजमें प्रतिष्ठित व्यापारी परिवारमें आपका जन्म हुआ। बचपनमें ज्यादा शिक्षा प्राप्त नहीं हो सकी, लेकिन फिर भी अपनी सहज प्रतिभा, कुशाग्र बुद्धि, एवं अथक परिश्रमके बल पर ४० वर्षोंसे साहित्य एवं इतिहास आदि की महान् सेवा कर चुके हैं और इसी में सदा कार्यरत मिलते हैं । श्री अगरचन्दजी नाहटा प्रसिद्ध लेखक, समालोचक एवं एक सफल अन्वेषक हैं। आप लेखकके अतिरिक्त अनेक पत्र-पत्रिकाओंके सम्पादक भी हैं। आपने हिन्दी एवं राजस्थानी भाषामें कितने ही नये तथ्य उपस्थित किये हैं जिनका शोध क्षेत्रोंमें अच्छा स्वागत हुआ है। देशके किसी भी कोनेसे आनेवाला शोधार्थी नाहटाजीके सादे जीवन, विनम्र स्वभाव एवं परिपूर्ण सहयोगकी प्रवृत्तिको देखकर निर्भय हो अपनी समस्या उनके सामने रखता है और नाहटाजी उसकी जटिल-से-जटिल समस्या का तुरन्त समाधान कर देते हैं । इस प्रकार देशके विभिन्न विश्वद्यिालयोंसे पी-एच. डी. कर रहे शोध छात्रोंका सही मार्ग दर्शन करते र कारण आपको शोधके क्षेत्रका महान् पथ-प्रदर्शक होनेका गौरव भी प्राप्त है। श्रीअगरचन्द नाहटा से मेरा प्रथम परिचय सन् १९६५ में मेरे अभिन्न मित्र श्री दाऊलाल शर्मा के माध्यम से हुआ और तभी से मेरा नाहटाजीसे निरन्तर सम्पर्क बना हुआ है । वह उदार एवं समय-असमयपर अपने हितैषियों एवं मित्रों के दुःख दर्द में काम आनेवाले व्यक्ति हैं। उनके यहाँ आते-जाते रहने के कारण उनकी शिक्षाके क्षेत्रमें उदार वृत्तिका संस्मरण याद आ गया है जिसे लिखे बिना नहीं रहा जा रहा है। तारीख एवं वार तो मझे स्मरण नहीं है परन्तु इतना अवश्य याद है कि मैं उनके पास किसी कार्यवश गया था। मैं और श्री नाहटाजी आपसमें वार्तालाप कर ही रहे थे कि एक कालेजका विद्यार्थी उनके पास आकर बड़ा उदास सा बैठ गया। थोड़ी देर बाद नाहटाजीने उससे हाल-चाल और पढ़ाईके सम्बन्धमें पूछा । वह लड़का बड़ा ही दुखी मनसे कह रहा था कि मेरे पिताजीको ४-५ माहसे वेतन नहीं मिल रहा है ऐसी स्थितिमें मैं बिना पुस्तकोंके पढ़ भी कैसे सकूँगा? नाहटाजीने उससे पूछा कि यदि पुस्तकोंका इन्तजाम हो जाये तो तुम्हें आगे पढ़ने में कोई बाधा तो नहीं होगी। वह बोला-मुझे पुस्तकें उपलब्ध व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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