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महात्माओं, स्वधर्मी बन्धुओंके साथ शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रा की। सं० १९९० में आप स्वर्गवासी हुए। स्वर्गवासके ८ मास पूर्व ही आप भविष्य-संकेत करते रहे । आप देवगतिमें विद्यमान हैं।
श्रीराजरूपजी नाहटाके तृतीय पुत्र स्वनामधन्य श्रीशंकरदानजी नाहटाका जन्म सं० १९३० की आषाढ कृष्णा ८ बुधवारको डाँडूसर ग्राममें हुआ। श्री शंकरदानजी नाहटाको हमारे चरित नायक श्री अगरचन्दजी नाहटाके पूज्य पिता होनेका महनीय पद प्राप्त है । आपके चरित्र-निर्माणमें श्रीशंकरदानजीके व्यक्तित्व को बहुत अधिक श्रेय सम्प्राप्त है अतः उनके विविध गण-विभूषित चारित्र्यका संक्षिप्त उल्लेख यहाँ आवश्यकीय है।
श्री शंकरदानजी नाहटाने डाँड्सरके अत्यन्त शान्त, स्वाभाविक-धर्मप्राण ग्राम्य वातावरण में वृद्धि पाते हए योग्य वयमें आवश्यक शिक्षा अजित की। उन दिनों बाल-विवाहकी प्रथा विशेषतः प्रचलित थी और अपने सदगणोंसे परिवार एवं परिवारेतरोंके अत्यन्त प्रीति-भाजन थे, अतः बारह वर्षकी अवस्थामें ही सं० १९४२ मिति वैशाख कृष्ण पंचमीको आपका शुभ-विवाह आपके ननिहालके गाँव लूणकरणसरमें शहरसारणी आदि कार्यों द्वारा प्रसिद्धिप्राप्त सेठ नन्दरामजी बोभराके सुपुत्र श्री खेतसीदासजीकी ज्येष्ठ पुत्री श्रीचुन्नीबाईके साथ हो गया। बाल्यकालसे ही आप बड़े परिश्रमी और साहसी थे। ग्राममें रहने के कारण आप कृषिकर्म और व्यावहारिक कार्योंमें भी अत्यन्त पटु बन चुके थे। आपके चाचा देवचन्दजी और उनके पुत्र भीमसिंहजी एवं मोतीलालजी बीकानेरमें रहने लगे और वहाँ हुण्डी चिट्ठीके लेन-देनका सराफा व्यापार बड़े पैमाने पर खोल दिया था। सैकड़ों गाँवोंसे इस व्यापारका घनिष्ठ सम्बन्ध था। उन्होंने श्री शंकरदानजीको बहुत योग्य समझकर गाँव डाँडूसरसे बीकानेर बुला लिया और इस व्यापारका सारा ज्ञान उन्हें भलीभाँति करा दिया।
व्यापारपाटवकी प्रौढ़ताकी स्थितिमें श्री शंकरदानजीने संवत् १९५० की आश्विन शक्ल १० को गवालपाड़ेके लिए प्रस्थान किया। यह वही गवालपाड़ा है, जहाँ आपके बाबाजी उदयचन्दजीने श्रम-सीकरोंसे नाहटा वंशके लिए एक अमर वृक्ष-वपन किया था जिसे आपके पिता राजरूपजी बड़े भ्राता लक्ष्मीचन्दजी व दानमलजी द्वारा अनुदिन सिंचन करते, पत्रित-पुष्पित होता हुआ फलित हो रहा था।
श्री शंकरदानजी नाहटाका साहस और सेवा-भाव उच्चस्तरका था । सं० १९५४ में गवालपाड़ामें भयावह भूकम्प हआ। वहाँके निवासियोंके लिए वह काल-स्वरूप बनकर आया था । भवन धराशायी हो गए, पथ विकट दरारोंसे खोखले बन गए, पृथ्वीसे जल निकलने लगा और आकाशसे वर्षा होने लगी। चारों तरफ जल, हवामें कड़ाकेकी ठण्ढक और आकाशमें बिजलीकी कड़क, घन-गर्जन विद्युत्-तर्जन । देखतेदेखते सूचि-भेद्य अन्धकार छा गया, प्रलयकाल उपस्थित हो गया, प्राणी मौत और जिन्दगीके बीच डबनेउतराने लगे।
निर्वाणोन्मुख द्वीपज्योतिमें जिस प्रकार तेलकी, अन्धकारमें प्रकाशरश्मिकी और निराशाके अम्बरमें आशाकी स्वर्णरेखाकी उपस्थिति जितनी हृद्य और जीवनदायिनी होती है उतनी ही मनोहारिणी उपस्थिति श्री शंकरदानजी नाहटाकी थी। आप संकटापन्नोंके मध्य सेवा और साहसका कवच पहिनकर उतर पड़े। आपने अधीरको धैर्य, विमूढको दिशाज्ञान, बुभुक्षितको भोजन, वस्त्रहीनको वस्त्र और अकिञ्चनको स्नेहांचित
यता प्रदान की। आप संत्रस्त और अभावग्रस्त लोगोंको पहाड़ पर ले गए और उन्हें आश्रय देकर तफानकी शान्ति होनेपर हाथमें बाँस लेकर कई साथियों के साथ जीवन-मरणकी परवाह न करते हए तफानग्रस्त क्षेत्रमें जनहितार्थ प्रविष्ट हए। सर्वप्रथम आप पार्श्वनाथ भगवान्के मन्दिर गए जो पूरा भूमिमें फंस
जीवन परिचय : १३
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