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________________ हैं । भीनासरके सेठिया भी अनेक वर्षों तक इस 'फर्म' में रहे । आजकल रंगपुर आदि फारनीसगंज कलकत्तामें उनका स्वतंत्र व्यापार है। नाहटा वंशके 'अन्नदाता' और 'कल्पवृक्ष' स्वरूप श्री उदयचन्दजीकी गौरव-गाथा इस परिवारमें आज भी प्रेम और श्रद्धाके साथ कही-सुनी जाती है। गवालपाड़ेके दुर्लभ लौह-द्वार नाहटा वंशजोंके लिए किसी भी 'मंदिरद्वार'से कम पवित्र नहीं हैं। वे लौह-कपाट श्री उदयचन्दजी नाहटाके फौलादी व्यक्तित्वका स्मरण दिलाकर विविध प्रेरणाओंके स्रोत बन गये हैं। वंशमें कोई-कोई ही ऐसा नर-रत्न उत्पन्न होता है जिसकी श्रम-साधनाका सुमधुर फल अनेक पीढ़ियों तक प्राप्त होता रहता है। __ कहते हैं जब उदयचन्दजी नाहटा स्वदेश लौटे तो घोड़ेकी जीनमें स्वर्ण मुद्राएँ भरकर लाये थे और चीनमें निर्मित स्वर्णपत्र भी था। आपने गवालपाड़े में नाहटा-वंशकी कीत्ति-कौमुदी चतुर्दिक् प्रसरित किया था और व्यापारी-वर्गमें अपनी प्रामाणिकता स्थापित की थी। आपके हाथमें एक अंगली अधिक थी, इसलिए लोग आपको ‘इक्कीसिया बाबू' कहते थे। आपने अपने कर्मठ जीवनसे स्वयंको सर्वतोभावेन 'इक्कीस' ही प्रमाणित किया । कहाँ पश्चिमोत्तर राजस्थानका एक छोटा-सा गाँव और कहाँ सुदूर पूर्वका आसामान्तर्गत गवालपाड़ा,लेकिन धुनके धनी,परम उत्साही श्री उदयचन्द नाहटाने उसे स्वदेशमें परिवर्तित कर लिया। यह कथन अक्षरशः सत्य है कि __ को वीरस्य मनस्विनः स्वविषयः, को वा विदेशस्तथा । यं देशं श्रयते तमेव कुरुते, बाहुप्रतापार्जितम् ॥ मनस्वी वीरके लिए न स्वदेश है और न कोई विदेश। वह जहाँ रहता है, अपने बाहुबलसे उसे अपना बना लेता है । वास्तवमें व्यवसायियोंके लिए कोई दूर नहीं है-'किं दूरं व्यवसायिनाम्' इस प्रकार यह असंगत नहीं है कि श्री ताराचन्दजी नाहटाने अगर नाहटा वंशको सुग्राम और प्रतिष्ठा दी तो श्री उदयचन्दजी नाहटाने स्ववंशको व्यापारके माध्यमसे लक्ष्मीपतियोंमें सुप्रतिष्ठित किया। स्वाभिमानकी अमन्द मन्दाकिनी दोनों ही महापुरुषोंमें समान वेगसे प्रवाहित होती रही। श्री उदयचन्दजी नाहटाके चरित्रवर्णन प्रसंगमें हमने उनके अनज श्री राजरूपजीका भी उल्लेख किया है। श्री राजरूपजी नाहटा हमारे चरित-नायकके पितामह थे। इन्हींके घर चार पुत्र उत्पन्न हुए। १. लक्ष्मीचन्दजी, २. दानमलजी, ३. शंकरदानजी, ४. गिरधारीमलजी (जिनका लघुवयमें निधन हो गया था)। १. लक्ष्मीचन्दजीका जन्म सं० १९११ में हुआ था। इन्होंने लूणकरणसरमें हजारों मन घासकी दो बागरें सं० १९५५-५६-५७ में दराई । उस समय दुष्कालमें गरीबोंको रोटी-रोजी दी । यह घास इतना अधिक परिमाणमें था कि सं० १९९९ तक दुष्कालोंमें गौएँ बे-रोकटोक चरती थीं। यह पुण्य-कार्य ४०-४२ वर्ष तक चलता रहा, सेठ साहबकी पुण्य व कीत्ति फैलती गई। सं० १९६२ में आपका स्वर्गवास हो गया। २. दानमलजीका जन्म सं० १९१६ में हुआ। वे भी बड़े सरल और प्रभावशाली व्यक्ति थे। ग्रामीण लोग खेती, औसर व विवाह आदिके लिए आपके पास सहायतार्थ आते, वे कभी खाली हाथ नहीं जाते । डाँडूसर गांव कर्ज-कोट हो गया तो ऋणमुक्त कराके अल्पवयस्क ठाकुरके साबालिग होने तक सार सँभाल करके गाँव दिलाया। तालाब, देवस्थान आदि जीर्णोद्धार कराये । जोधासरके ठाकुर साहबपर जब राजा नाराज हो गए तो आपने उन्हें इज्जतसे गाँवमें रखा और दरबारसाहबसे वापस गाँव दिलाया। यति १२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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