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श्रृंगारके दर्शन होते हैं। इस तथ्यको प्रकटानेवाले कितने ही लेख पढ़नेको मिले, जिनमें मुझे जैन-काव्यके अनथक खोजी एवं संग्राहकके रूपमें श्री अगरचन्दजी नाहटाके दर्शन हुए और उनके अथक परिश्रम एवं साहित्य प्रेमके प्रति मेरी श्रद्धा सहज ही प्रगाढ़ हो उठी।।
शोध-प्रबन्ध लेखनके समय ७ दिन तक जोधपुर में रहना पड़ा था। प्राच्य विद्या प्रतिष्ठानमें कई पाण्डुलिपियाँ उस समय देखी थीं। उसी समय बीकानेर जाकर आपका 'अभय जैन ग्रन्थालय' देखनेकी भी उत्कट लालसा थी; किन्तु समयाभावके कारण मेरे मनकी वह साध पूरी नहीं हो सकी । उस अभावकी पूर्ति विभिन्न पत्र-पत्रिकाओंमें प्रकाशित आपके लेखोंने ही की। लक्ष्मीके वेशमें पल रही देवी सरस्वतीके उनमें मुझे दर्शन हुए, यदि यह कहूँ तो अत्युक्ति न होगी।
श्री नाहटाजीको मिले इतिहास रत्न, सिद्धान्ताचार्य, विद्यावारिधि जैसे सम्मानीय अलंकरण श्री नाहटाजीको भेंटकर स्वयं अलंकृत हो गये हैं। श्री नाहटाजी हिन्दी राजस्थानी साहित्य भवन के शिल्पी हैं, जिन्होंने बड़ी योग्यता एवं परिश्रमसे, दूर-दूर से ला-लाकर एक-एक ईट रूपी पुस्तक चुन-चुनकर रखी है । भारतकी कौन-सी पत्रिका है, जिसे श्री नाहटाजीके लेखोंने स्पर्श नहीं किया हो । श्री नाहटाजी. साहित्य अन्वेषक, संग्राहक एवं सम्पादकके रूप में वर्षों पूर्व ही प्रतिष्ठित हो चुके हैं-यह निर्विवाद है। 'अभय जैन ग्रन्थालय' 'श्री शार्दूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट' आपकी साहित्यिक सेवाओं एवं साहित्य प्रेमके जीवन्त निदर्शन हैं । 'राजस्थान भारती' का कुशल सम्पादन कर आपने अपनी साहित्यिक योग्यताकी छाप सबके मनों पर छोड़ी है।
.. राजस्थानमें राजस्थानी भाषाके अभ्युदयमें श्री नाहटाजीका योगदान सर्वदा प्रशंसनीय रहेगा । श्री नाहटाजीने अपनी शोध वृत्तिके माध्यमसे प्राचीन राजस्थानीकी दुर्लभ पाण्डुलिपियोंकी खोज राजस्थानी के साहित्य भंडारको भरा है। जैन मुनियों द्वारा लिखित राजस्थानी भाषा साहित्यको प्रकाशमें लानेका श्रेय यदि किसीको दिया जा सकता है तो वह श्री नाहटाजीको ही। आपने राजस्थानी-विद्वानोंकी अनेक मान्यताओं एवं धारणाओंको मूल-प्रतियोंके साक्ष्यमें संशोधित किया है । आपने जन-मानसमें बैठी इस धारणाको भी निर्मल सिद्ध किया है कि राजस्थानीमें मात्र चारणी डिंगल साहित्य है और वह भी वीर रसपूर्ण, अ शान्त रसात्मक जैन साहित्यको प्रकाशमें लाकर न केवल रसानुभूतिकी विविधता ही प्रस्तुत की है, अपितु भाषा एवं व्याकरणका विभेद भी दर्शाया है । चारण कवियोंकी भाषा जहाँ डिंगल है, वहाँ जैन कवियोंकी भाषा बोलचालकी मूल राजस्थानी । राजस्थानीका यह स्वरूप हिन्दी भाषाके अधिक निकट है । इस खोजके लिये श्री अगरचन्दजी नाहटा साहित्य जगत्में सदैव स्मरण किये जाते रहेंगे। . श्री नाहटाजी यद्यपि लक्ष्मी एवं सरस्वतीका वरदान एक साथ वरण किये हैं; तदपि वे प्रकृतिसे अतीव सरल एवं विनम्र हैं। उन्हें अभिमान जैसी वस्तु तो छू कर भी नहीं गई है। आपकी वाणी एवं व्यवहारमें कहीं भी दर्प एवं अहंकार बोलता नहीं दीखता। सादा जीवन उच्च विचारवाली कहावत आप पर पूर्णतः चरितार्थ होती है ।
श्री नाहटाजीने अपने कृतित्वका कीर्तिमान स्थापित किया है।
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३०१
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