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________________ आवश्यक पुस्तकोंको निकाल ईप्सित स्थल तत्काल बता कर मेरी दिल जमई की। मैं भौंचक्का-सा रह गया इस अद्भुत स्मरणशक्तिको देख कर । चार दिन तक निरन्तर यह क्रम चलता रहा । प्रत्येक तथ्यका असंदिग्ध ज्ञान, प्रत्येक विषय पर पूर्ण प्रभुत्व, प्रत्येक गुत्थीको अनायास ही सुलझानेकी आदि अद्भुत व्युत्पन्नमति आदि गुणोंसे ओत-प्रोत ज्ञान और गुणोंके भण्डार इस महामानवको अपनी आँखोंके सामने, साक्षात् देख कर मेरे अन्तरका अपने विद्यार्थी जीवन में जमा यह विश्वास सदा सर्वदाके लिए सुदढ़, सशक्त, अमिट और अमर बन गया कि हेमचन्द्राचार्यको जो कलिकाल सर्वज्ञकी उपाधि विद्वानोंने दी है, उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं। प्राचीन कालमें इस आर्यधरा पर केवल ज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी विद्यमान थे। इस प्रकारके विवरण जो आज हमें हमारे धर्म ग्रन्थों में देखनेको मिलते हैं उनपर संदेह करना केवल मूर्खता और हठधर्मिता मात्र है। कार्य समाप्ति पर ऐतिहासिक एवं सैद्धान्तिक विषयों पर मैंने नाहटाजीके सम्मुख अपनी अनेक जिज्ञासाएँ रखीं और उन्होंने बड़ी सरल सीधी और स्पष्ट भाषामें मेरी सभी जिज्ञासाओंका समाधान किया। मुझे अतिशय आह्लादके साथ ही साथ आश्चर्य भी हआ और मैं विस्फारित नेत्रोंसे उनकी ओर देखते ही रह गया । हठात् मेरे मुँहसे एक ऐसा प्रश्न निकल गया, जिसके लिए तत्क्षण ही स्वयं मुझे अपनी अक्ल पर तरस आया कि तुझे आम खानेसे मतलब है या आम के पत्ते गिनने से? प्रश्न था- 'आपने संस्कृत और प्राकृतकी कौन-कौन सी उपाधि परीक्षाएं पास की हैं ?" नाहटाजी मुस्कराए और मेरा अंतर हिल उठा। नाहटाजीने तत्क्षण सहज स्वरमें कहा--"पांचवीं कक्षातक ।" मैंने अविश्वास के स्वर में पूछा-"कहाँ ?" "मेरे अपने नगरके स्कूल में ।" "फिर इस अगाध ज्ञानके पीछे राज क्या है ?" मैंने प्रश्न किया। नाहटाजीका छोटा सा उत्तर था-"स्वाध्याय।" अब नाहटाजीको कुतूहल सूझा। उन्होंने कहा अब मेरी पारी है-"आप राठोर राजपूत हैं फिर यह संस्कृत, प्राकृत और जैन धर्मके प्रति रुचि कैसे ?" मेरे जीवनमें मुझे यदा कदा यही प्रश्न सुनने को मिला है अतः मैंने अपना वही चालीस साल पुराना उत्तर दोहरा दिया-"श्रीमन् ! मुझे अपने विद्यार्थी जीवन में मुख्यतः शिक्षा इन्हीं तीन विषयोंकी मिली है।" नाहटाजीने मार्गदर्शन करते हुए कहा, "आप जैन-दर्शन ओर हिन्दू-दर्शनपर तुलनात्मक लेख लिखिये और मुझे सूचना को जिये, मैं पत्रपत्रिकाओंको कहकर उन्हें प्रकाशित करवा दूंगा। मैंने केवल उनका जी रखने के लिये कहनेको तो कह दिया कि प्रयास करूंगा पर मेरे अन्तरमें तो उथल-पुथल मची हुई थी कि एक ओर तो एक प्राइमरी शिक्षा प्राप्त कर्मठ व्यक्तिने दृढ़ अध्यवसायके साथ अनवरत अध्ययनसे भारतके चोटीके विद्वानों, शोधकों, इतिहासवेत्ताओं, साहित्यिकों और लेखकोंमें सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर लिया है और दूसरी ओर महान् अकर्मण्य मैं हूँ जिसने ४० साल पहले 'न्यायतीर्थ' और 'व्याकरणतीर्थ' की उपाधियाँ प्राप्त करके भी जीवन भर भाड़ ही झोंका। उसी समय अदृश्य ब्रह्माण्डमें छुपे हितोपदेशकार विष्णुशर्माके स्वर मेरे कर्णरन्धोंमें गूंज उठे __ हा हा पुत्र क नाधीतं, सुगतैताषु रात्रिषु । तेन त्वं विदुषां मध्ये, पंके गौरिव सीदसि ।। हृदय में गहरी अभिलाषा जगी कि महाभारतकार वेदव्यास और श्री कृष्ण भगवान् द्वारा बनाये गये ज्ञानसूर्य सरशय्याशायी पितामह भीष्मके चरणोंमें बैठकर धर्मराज युधिष्ठिरने अपने हृदयमें ज्ञानगंगाको २९६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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