SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थको पाण्डुलिपि सम्बन्ध में परामर्श हेतु ख्यातनामा विद्वान् नाहटाजीके पास बीकानेर जानेका सुअवसर प्राप्त हुआ । जैनधर्मके आद्य तीर्थ प्रवर्तक भगवान् ऋषभदेव के समय से अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरके निर्वाण काल तककी जैनधर्म के इतिहासकी मुख्य-मुख्य घटनाओंका विवरण नाहटाजीको सुना कर उनके सम्बन्धमें नाहटाजीके सुझाव मुझे आशुलिपि में लिखने थे । आगमों, दुरूह प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत में लिखे अगणित धर्म ग्रंथों, प्राचीन आचार्योंकी हस्तलिखित निर्युक्तियों, चूणियों, अवचूर्णियों, टीकाओं और रब्बों में इतस्ततः उल्लिखित इतने सुदीर्घ अतीत के ऐतिहासिक एवं धार्मिक तथ्योंको महामनीषी आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराजने अपने भगीरथ प्रयास से सहज, सरल-सरस भाषामें क्रमबद्ध किया था । उन सबके सम्बन्ध में प्रामाणिक परामर्श देना अपने आपमें कितना बड़ा गुरुतर कार्य था, इसका सही अनुमान लगाने में कल्पना की उड़ान भी थक जाती है । इस गुरुतर कार्यके लिए सबकी आँखें नाहटाजी पर आकर रुकी थीं यही नाहटाजी के विराट् व्यक्तित्वका दिग्दर्शन करानेके लिए पर्याप्त हैं । मैं पाण्डुलिपिके दो बड़े पुलिन्दे लिए नाहटाजी के विशाल ज्ञान भण्डार में पहुँचा । जब मैंने छरहरी बुनावटकी केसरिया रंगको बड़ी बीकानेरी पगड़ी सिर पर रखे नाहटाजीको पुस्तकोंके बड़े-बड़े ढेरोंके बीच अलमस्ती से बैठे देखा तो मुझे सहसा उर्दू के एक शायरका यह शेर याद आ गया- हमें दुनियाँ से क्या मतलब के मकतब है वतन अपना । मरेंगे हम किताबों पर, बरक होंगे कफन अपना ॥ केवल रात्रिमें शमा पर दीवाना रहने वाला परवाना रात-दिन अपनी पुस्तकों पर फिदा होने वाले इस आध्यात्मिक दीवानेसे हार मान कर अपना मुँह छुपाये अदृश्य हो चुका था । सरस्वती के इस अनन्य उपासककी तन्मय साधना देख कर मैं हर्ष विभोर हो उठा। उस समय मेरे मानसमें एक साथ उठे अनेक विचारोंने जो तूफान खड़ा कर दिया उसका हूबहू चित्रण करना मेरी लेखनी शक्ति बाहर की बात है । जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, पहला विचार मेरे मन में यह आया कि अथाह शास्त्र सागरके आलोडन - विलोडनसे बड़े श्रमके पश्चात् निकाले गये इस मक्खन के सम्बन्धमें क्या इस व्यक्तिसे उचित परामर्श मिल सकेगा, जो देखने में सैकड़ों बरस पहले के मारवाड़ी सेठका हूबोहूब प्रतिरूप प्रतीत होता है । दूसरे ही क्षण मेरी निगाह नाहटाजीकी, भ्रूभंगीको भेद कर निकलती हुई तीक्ष्ण और कुछ तिर्धी दृष्टि पर पड़ी। मुझे वह चिरपरिचित सी लगी । मैंने पहचान लिया कि यह तो वही लोहलेखनी के धनी आचार्य चतुरसेन शास्त्री की अन्तर्वेधी दृष्टि है । मैं इस दृष्टिके अद्भुत चमत्कारसे अच्छी तरह परिचित था । मेरे समस्त ऊहापोह शान्त हो गये और मैं अपने कार्यकी सिद्धिकी आशासे आश्वस्त हो गया । नाम और कार्यका परिचय पाते ही नाहटाजीने सहज स्वर में कहा, "मैं आपका इन्तजार कर रहा था। मेरे पास पहले सूचना आ गई थी । आप जितना समय चाहे लें । प्रातःकाल सामायिक करता हूँ, उस समय भी धार्मिक कार्य होनेके कारण इस कार्यको किया जा सकेगा । दिनके अतिरिक्त रात्रिको भी हम लोग बड़ी देर तक बैठ सकते हैं । आप बाहरसे आये हैं, अतः आपके कार्यको प्राथमिकता दी जायगी ।" उसी दिन कार्य आरम्भ किया गया । आवश्यक कार्योंके लिए थोड़ेसे अवकाशको छोड़कर प्रातःकालसे रात्रिके ग्यारह बजे तक नाहटाजीने पूर्ण मनोयोगसे पाण्डुलिपिको सुना, अनेक स्थलों पर अमूल्य सुझाव दिये, अनेक ऐतिहासिक तथ्योंके मूलाधार ग्रन्थोंके उद्धरण बताए और अनेक स्थलोंकी औचित्यता अथवा अनौचित्यता पर चर्चा की ओर ९० हजार पुस्तकोंके अपने विशाल पुस्तक भण्डार में से पलक झांपते-झांपते व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy