________________
एक व्यक्ति : एक युग
श्री ज्ञान भारिल्ल जैन समाजकी कुछ विशिष्ट परम्पराएँ हैं। उनमेंसे एक है साहित्यका निर्माण । जैन मुनियों ने तो शताब्दीसे हमारे साहित्यका भंडार भरा ही है, अनेक जैन श्रेष्ठ भी प्रत्येक युगमें साहित्यनुरागी रहे हैं। उन्होंने कवि-लेखकोंको आश्रय दिया तथा स्वयं भी साहित्य सृजन किया। यह धारा आज भी अटूट चली आ
श्रद्धय श्री अगरचन्दजी नाहटा एक ऐसे ही विद्वान् श्रेष्ठि हैं, जिन्हें न केवल एक साहित्यकार बल्कि राजस्थानमें साहित्य सृजनका एक युग कहा जा सकता है। प्रातः से सन्ध्या तक कतिपय दैनिक कार्यों की अवधिको छोड़कर एक ही आसनमें वे साहित्यकी शोध-खोज तथा लेखनमें दत्तचित्त रहते हैं । उनकी यह एकान्त, अचल साधना हम अपेक्षाकृत युवक कहलाने वाले लोगोंके लिये एक व्यावहारिक पाठ ही है। साधना के बिना कोई सिद्धि कभी मिलती नहीं, यह तथ्य पूरी तरहसे हृदयंगम करके यदि आजके अनेक साहित्यकार अपने साहित्य कर्ममें प्रवृत्त हो सके तो निश्चय ही वह अपना भी कल्याण करें तथा मां सरस्वतोके भंडारकी भी श्रीवृद्धि हो ।
नाहटाजीके विषयमें क्या कुछ लिखा जाय ? मेरा तो जन्म बीकानेर में ही हुआ, तब अवश्य ही उन्होंने मुझे अपनी गोदमें खिलाया होगा, क्योंकि मेरे पिताजीको जो कि एक जाने-माने जैन विद्वान हैं, नाहटाजीसे आरम्भसे ही घनिष्ठ आत्मीयता रही है । फिर मैं जब दो ही वर्षका था तब पिताजी बीकानेर छोड़कर जैन गुरुकुल ब्यावरमें प्रधानाचार्य होकर आ गये । बीकानेर तो छूटा किन्तु बीकानेरके व्यक्तियोंसे सम्बन्ध बराबर बना रहा । विभिन्न समारोहोंमें नाहटाजी बराबर उपस्थित होते रहे । खैर, तब तक तो मैं बालक ही था, यदि उस समयकी कोई स्मृति मेरे मनमें शेष है तो वह है नाहटाजी तथा श्री श्रेष्ठ चम्पालाल जी बांठियाकी ऊंची लहरदार बीकानेरी पगड़ियाँ ।
जब मैं बड़ा हो गया, पढ़ लिख गया, कुछ लिखने भी लग गया तो एक समय ऐसा भी आया जब मैं राजस्थान साहित्य अकादमीका प्रथम सचिव बनकर उदयपुर गया। नाहटाजी अकादमीके सदस्य थे। अकादमी के विभिन्न कार्यक्रमों तथा समारोहमें वे अवश्य सम्मिलित होते थे और मुझे उनका स्नेह सदैव प्राप्त होता रहता था।
वह युग भी बीता। कुछ वर्ष इधर-उधर रहने के पश्चात् मैं शिक्षा विभाग के प्रकाशन अनुभागका अधिकारी बनकर बीकानेर ही जा पहँचा । तब तो नाहटाजीसे समय-समय पर मिलना जलना होता ही रहा, यद्यपि उतना नहीं जितना होना चाहिए था । और इस बातकी शिकायत नाहटाजीको मुझसे बराबर बनी भी रही जो कि जायज भी थी, क्योंकि वे मुझसे पुत्रवत् स्नेह करते हैं। कुछ तो कार्य व्यस्तताके कारण तथा कुछ अपने स्वभावजन्य आलस्यके कारण मैं अपनी और उनकी बीकानेर में उपस्थितिका पूरा लाभ नहीं उठा पाया। किन्तु लाभ तो मैंने उठाया ही। प्राचीन जैन साहित्यमें एकसे एक अद्भुत कथाएँ भरी पड़ी हैं । मैं आजकल उन कथाओंकी खोजबीन कर आधुनिक शैलीमें उपन्यासके रूपमें लिखने में रुचि रखता हूँ। मन रमता है । नाहटाजीने मुझे, जब भी मैंने चाहा, कोई न कोई सुन्दर कथा खोज कर दी। पूरी सामग्री जटा दी । इस तरह मैंने कुछ लिखा ।
___ मैं अब बीकानेर नहीं हूँ। किन्तु श्रद्धय नाहटाजीसे दूर भी नहीं हूँ। आँखें बन्द करके सोचता
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २७१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org