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________________ एक दिन आदरणीय डॉ० व्रजलालजी वर्मा (डी० ए० बी० कॉलेज कानपुर) से नाहटाजी की विद्वत्ता और एकान्त साहित्यसाधना की चर्चा सुनकर मेरा भावुक मन नाहटाजीकी ओर आकर्षित हुआ और मैंने अपने विषय चयन हेतु किंचित् संकोच वश पत्र व्यवहार प्रारम्भ किया। तीसरे दिन नाहटाजीका स्नेहिल पत्र मुझे प्राप्त हुआ, जिसमें उन्होंने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक मेरा मार्ग-दर्शन करना स्वीकार करते हुए सूचित किया कि राजस्थान में अनुसंधान कार्य हेतु सैकड़ों विषय हैं, कठिनाई यह है कि कोई काम करने वाला ही नहीं मिलता ।' लम्बे परामर्श के उपरान्त "जैन कवि वाचक मालदेव और उनका साहित्य" नामक विषय पर कार्य करना तय किया क्योंकि मैं चाहता था कि अनुसन्धान कार्य की सारस्वत गरिमा और पवित्रता को सुरक्षित रखने हेतु ऐसे विषय का चयन किया जाना चाहिये, जो सर्वथा नवीन और साहित्यिक दृष्टि से उपयोगी हो । सागर विश्वविद्यालय की अनुसन्धान समिति ने डॉ० व्रजलाल के निर्देशन में शोध कार्य करने की स्वीकृति प्रदान की । बस यह मेरा नाहटा जी से प्रथम परिचय था । अब विषय तो स्वीकृत हो चुका था परन्तु अन्यान्य समस्यायों के कारण लगभग दो वर्ष तक इधरउधर की सूचनाएँ एकत्र करने के अतिरिक्त शोध कार्य में विशेष प्रगति न हो सकी । विषय राजस्थान से सम्बन्धित था । अधिकांश सामग्री वहीं थी परन्तु जाना न हो पाया । इस बीच मेरे प्रमाद को भंग करने हेतु नाहटाजी के पचीसों पत्र मुझे झकझोरते रहे और उस दिन तो मैं आश्चर्य चकित अवाक् रह गया जब शोध में प्रकाशित कविवर मालदेव की रचनाओं का विस्तृत परिचय मेरी जानकारी हेतु उन्होंने भेजा और लिये आमंत्रित किया । मरता क्या न करता ! की तैयारी कर राजस्थान के लिये रवाना हुआ प्रेम भरी फटकार सुनाते हुए शीघ्र ही बीकानेर आने के एक दिन कानपुर सेन्ट्रल स्टेशन से महीनों की शोध यात्रा और अपने आने की अग्रिम सूचना तार द्वारा नाहटाजी को भेज दी । "मैं आज प्रतीक्षा ही कर रहा कानपुर से बीकानेर का लम्बा सफर ! चौबीस घंटे से भी अधिक का समय ! गाड़ी सुबह सात बजे बीकानेर पहुँची । बीकानेर में पानी की कमी का मैंने मन ही मन अनुमान कर लिया था । अतः स्टेशन पर ही नहा धोकर नाहटों की गवाड़ ( नाहटाजीका निवास स्थान ) के लिये प्रस्थान करना उचित जान पड़ा। स्टेशन से बाहर आते ही मुझे सुखद आश्चर्य की अनुभूति यह जानकर हुई कि श्री नाहटाजीसे अधिकांश ताँगेवाले परिचित से हैं । तांगे द्वारा नाहटाजी के यहाँ पहुँचा । नाहटाजी श्री अभय जैन ग्रंथालय से घर की ओर भोजन हेतु आ रहे थे । तांगा रुका ! मुझे देखते ही बोले था और मुझे निश्चय था कि तुम इसी गाड़ी से आओगे । अच्छा हुआ आ गये । मार्ग में कोई विशेष कठिनाई तो नहीं हुई। लम्बा सफर था न ! मेरी विचित्र स्थिति हो गयी जैसे मेरे मानस में काल्पनिक नाहटाजी की आकृति भाद्रपद की घनघोर घटा यामिनी में तीक्ष्ण दामिनी की भांति कौंधकर अकस्मात् विलुप्त हो गयी । अब मेरे सामने ढलती वय का एक ऐसा व्यक्ति खड़ा था जिसके सिर पर लम्बी ऊँची पगड़ी, बड़ी-बड़ी सघन किन्तु अधिकांश श्वेत मूँछें और उनके नीचे दमकती हुई ओष्ठ दीप्ति, आँखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा, प्रशस्त ललाट, लम्बी सुघड़ नासिका, गेहुँवावर्ण-जो अब अपेक्षाकृत श्यामल हो चला है । श्वेत कुर्त्ता और धोती का सुन्दर आकर्षक राजस्थानी परिधान ! स्नेहस्निग्ध व्यक्तित्व ! किसी राजस्थानी चारण का गाया हुआ निम्नांकित दोहा मैं सस्वर गुनगुना उठा तन चोरवा मन ऊजला, भीतर राखँ भावा । किनकावरान चीतवे, ताकूं रंग चढ़ावा ॥ नाहटाजीने मुझे हृदय से लगा लिया और घूरते ही बोले- जल्दी से नहा धो लो फिर भोजन किया जाय । मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ । २५४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012007
Book TitleNahta Bandhu Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDashrath Sharma
PublisherAgarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages836
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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