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इस सन्दर्भ में यथानाम तथा गुणवाली धन्या अभिधेया नाहटा कुलाङ्गनाकी प्रशस्तिका पठितव्य हैसमजनि जनी मान्या धन्याभिधास्य, सुधारसप्रसरमधुरव्याहारोद्धा सुशीलरमानघा । यतिजन सदा सेवा हेवा कताकलिता. हि याऽजनयत निजं नामान्वर्थ विवेकवती सती ।।
उसकी (कुमारपाल की) परम मान्या, अमृत वर्षी मधुर व्यवहारोंवाली, अत्यन्त पवित्र 'धन्या' नामकी सुशीला स्त्री थी; जो यतिजनोंकी सेवामें सदा तत्पर रहती थी; जिस विवेकवती सतीने अपने नामको सार्थक किया था।
जिस वंशमें पिता सद्गुणोंका आकर हो; माता श्रेष्ठ श्रद्धास्वरूपा हो, उसकी सन्तान कितनी सच्चरित्र और सर्वोपकारी होगी; यह कहने की आवश्यकता नहीं है ।
स्वः शाखेव सुखावहान् कलफलान् प्रासूत सा सत्सुतान् ।........ त्रयोऽपि मूर्ता इव पुरुषार्थाः --....
उसने कल्पवृक्षके समान सबको सुख देनेवाले, सुन्दर फलोंवाले तीन अच्छे, परम पुरुषार्थी पुत्रोंको जन्म दिया।
इसी महनीय नाहटा गोत्रमें जैनधर्मोपासक श्रीयुत् जालसीके वंशमें श्रेष्ठिप्रवर गुमानमलजी उत्पन्न हुए। श्री गुमानमलजी हमारे चरितनायकके उत्तम वृद्ध प्रपितामह थे । वृद्ध प्रपितामह श्री ताराचन्दजी लगभग
र्ष पर्व बीकानेर में उच्चपदपर राजकीय सेवा करते थे। उनका घर सुसमद्ध और अत्यन्त प्रतिष्ठित था। बीकानेर नरेश महाराज सुरतसिंहजी से किसी कारणवश आपका मनमुटाव हो गया और आपने राज्यमें आना जाना बन्द कर दिया। जनश्रति है कि नाहटा श्री ताराचन्दजी बीकानेरीय गाँवों में उगाही करके लाया करते थे और नजरानारूप में दरबार को कुछ हिस्सा भेंट कर देते थे। एक बार इन्होंने गाँव की उगाही न मिलने से कुछ भी नजराना नहीं दिया तो राजाजी ने इन्हें दुगुना नजराना देने को कहलाया। श्री नाहटा नजराना न देनेके अपने पूर्वनिश्चयपर अटल रहे और उन्होंने बीकानेर छोड़कर पार्श्वस्थ गाँव कानासर को अपना निवास स्थान चुन लिया और वहाँ शानशौकतसे रहने लगे। भरेपूरे परिवारमें गायें, भैंसें, ऊँट, वैल प्रभृति पशुधनकी प्रभूतता थी, घरमें काम करनेके लिए दास-दासियाँ नियुक्त थीं आसपासके गाँवोंमें साख और धाक थी और धन्धा अच्छा चलता था।
कुछ वर्षों तक सानंद समय बीता। एक दिन घरमें अग्नि-प्रकोप हआ और सारा घर जलकर राख हो गया। इस प्रबल अनलमें बीकानेरके घर, जमीन-जायदादके पट्टे, राजकीय खास रुक्के, परवाने, खाताबही एवं आवश्यक कागजात सब निःशेष हो गए।
सेठजीने उक्त गाँवको अशुभ जानकर छोड़नेका निश्चय कर लिया। और जलालसर नामक गाँवमें जाकर सपरिवार बस गए।
एकबार इनके घरकी दासी अपने घड़े कुएं पर दूसरोंसे पहिले पानी भरनेके लिए हठ करने लगी। गाँववालोंने उसकी एक न चलने दी और कहा-यहाँ तो बारी-बारीसे घड़े भरे जायेंगे, यह कुँआ सबका है, न कि तुम्हारे सेठोंके खुदवाया हुआ है । अतः तुम्हारी उतावल नहीं चलेगी।
स्वात्माभिमानी सेठोंके घरकी दासी भी स्वाभिमानिनी थी। उसने तत्काल खाली घड़ा सीधा अपने मस्तक पर रखा और घरकी राह ली। सेठ श्री ताराचन्दजी घरके आगे कई मनुष्यों के बीच पलंग पर बैठे
१. उपाध्याय लब्धिनिधान रचित प्रज्ञापना टीका, श्रीजेसलमेरुदुर्गस्थ जैन ताडपत्रीय ग्रन्थ भंडार । २. यह गाँव बीकानेरसे ८ मील उत्तरमें है।
जीवन परिचय : ७
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