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मोतीलाल मेनारियाकी खोज-पड़तालकी बात चलायी थी । बादमें अपभ्रंश और हिन्दी साहित्य के इतिहास के आदिकालके अध्ययन - अनुशीलनके समय मैंने नाहटाजीका महत्त्व समझा । गुरुवर डॉ० नेमिचन्द शास्त्री ( अध्यक्ष, संस्कृत एवं प्राकृत विभाग, जैन कालेज, आरा ) ने भी मेरी शोध- सन्दर्भ में श्रीनाहटाजी की बात चलायी थी और उनसे अपेक्षित सहायता की आवश्यकता प्रकट की थी ।
ऐसी मनःस्थिति में मैं जोधपुर से बीकानेर चल पड़ा। रात भरकी असीम परेशानी के उपरान्त मैं सुबह बीकानेर पहुँचा । गाड़ी में मेरे मानस - क्षितिज पर एक प्रश्न बार-बार कौंध रहा था कि मैं सर्वप्रथम श्री नाहटाजी से क्या कहूँगा? यदि दरवाजा बन्द हो तो कैसे खुलवाऊँगा ? परन्तु शीघ्र ही एक पंक्ति समाधान बनकर आई
'नाहटाजी तो बोलो,
हूं
जरा दरवाजा तो खोलो । अकेला बीकानेर में ।'
मैं
आया
खैर, सौभाग्य था
कि दरवाजा खुलवानेकी आवश्यकता नहीं हुई । ऐसे उदारमना नाहटाजीका दरवाजा मेरे जैसे पाठक के लिए सर्वदा एवं सर्वथा खुला हुआ है ।
एक बहुत बड़ा आलिशान मकान, चारों ओर पुस्तकों का ढेर | उन्हीं ढेरोंके बीचमें दो वृद्ध मनुष्य गम्भीर अनुशीलनमें रत थे । मेरी बुद्धिको यह समझते देर नहीं लगी कि श्री नाहटा कौन हैं, तत्क्षण श्री देवकीनन्दनजी 'देशबन्धु' ने संकेत भी किया । मैंने जाकर चरण-स्पर्श किया और अपना परिचय दिया । मैंने बहुत थोड़े में अपना प्रयोजन बतलाया और डॉ० मेनारियाका संस्तुति - पत्र भी दिखलाया ।
'नाटा' शब्दने उनकी काल्पनिक प्रतिमूर्तिको मेरे मानस - क्षितिज पर दूसरा चित्र अंकित किया था। भोजपुरी एवं हिन्दी में 'नाटा' कदका वाचक एक चलता एवं प्रसिद्ध शब्द है । मैं समझता था कि यशस्वी स्वर्गीय प्रधान मन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्रीकी भांति यह भी नाटा आदमी अंगूठीका नगीना है । साहित्य-क्षेत्र में अंगूठीका नगीना होनेके बावजूद आपका शरीर पूरे डीलडोलका है और कहना चाहें तो कह सकते हैं कि हिन्दी साहित्य संसार में कविवर निराला, पं० नलिनविलोचन शर्मा, डॉ० धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी और डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदीकी परम्परामें नाहटाजो भी आयेंगे। विधाताने इन लोगोंको प्रतिभा देने में तो उदारता दिखलायी ही, शारीरिक संरचना, गठन और डील-डौल देने में भी कोई कंजूसी नहीं की । इस मानी में ये उन्हीं लोगों के समान परम भाग्यशाली हैं ।
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मैं अपने शोधके सन्दर्भ में बातचीत करने लगा । मेरा विषय है, अपभ्रंश और हिन्दी के काव्य रूपोंका तुलनात्मक अध्ययन ।' इस विषय पर उन्होंने स्वयं काफी लिखा है । उन्होंने उन पत्र-पत्रिकाओं की चर्चा की, जिनमें काव्यरूपों के सम्बन्ध में उनके निबन्ध निकल चुके हैं। उन पुस्तकों एवं विद्वानोंकी ओर भी मेरा ध्यान आकर्षित किया, जिन लोगोंने अपनी कृतियों में इस विषयपर अनुसन्धान एवं अनुशीलन किया है । उनके निर्देशन के अनुसार मैं पत्र-पत्रिकाओं को उलटता रहा और मैंने पाया कि काव्यरूपों पर जितनी खोज इस व्यक्ति की है, हिन्दी - जगत् में उसका जोड़ा नहीं है ।
मैं तीन दिनों तक उनके सम्पर्क में रहा और मैंने पाया कि इस उम्र में भी इनपर बुढ़ापाका तनिक भी प्रभाव नहीं है । साठ वर्ष से अधिक उम्र होने पर भी अभी यौवन उनपर थिरक रहा है, जवानी अंगड़ाई ले रही है, किस मानी में ? सरस्वतीकी असीम आराधनामें । चौबीस घंटे में अभी भी १६-१७ घंटे वे अध्ययन पर लगा रहे हैं । एक बैठक में ५-६ घंटे तक न हिलना-न डुलना । बहुतोंके धैर्य एवं परिश्रमकी परीक्षा हो जाती है । देखा, बहुत देखा परन्तु सरस्वतीका ऐसा आराधक, साहित्य-साधनाका ऐसा अपूर्व पुजारी नहीं देखा । राजस्थानके बालू- काटोंके बीच यह अपूर्व गुलाब खिला हुआ है ।
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २५१
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