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सम्बन्ध बनाए हुए हैं । समाजके महान् पुण्योदयसे नाहटाजी अपनी आयुकी ६०शरद् ऋतुएँ पूर्णकर ६१वीं में पदार्पण कर चुके हैं । इस शुभावसर पर उनका जो अभिनन्दन हो रहा है, वह साहित्यिक जगत्की उन हार्दिक पुनीत शुभ कामनाओंका प्रतीक है, जो शासनदेवसे उनकी कार्यप्रवृत्त दीर्घायुकी याचना करती है ताकि उनके द्वारा की जानेवाली शासन सेवाका काम निर्बाध गतिसे प्रगति करता रहे।
नाहटाजी से मेरा प्रत्यक्ष सम्पर्क एवं परिचय आजसे लगभग २६ वर्ष पूर्व उस समय हुआ जब बीकानेरकी एक संस्थामें मुख्याध्यापकके पदपर मेरी नियुक्ति हई। उससे पहले उनके अक्षरदेहका सामान्य परिचय था। प्रथम भेंट में ही उनकी सादगी, सज्जनता, विनम्रता, साहित्य सेवाकी भावना, परिश्रमशीलता एवं धार्मिकताकी जो छाप मेरे हृदयपर पड़ी, वह आजतक अक्षण्ण रहते हुए निखरती ही गयी है। वास्तविकता यह है कि मुझे अपने अन्तःकरणमें अनेक बार इस विषय में लज्जा और संकोचका अनुभव होता है कि नाहटाजी जैसे व्यक्ति किसी विद्यालय, महाविद्यालय या विश्वविद्यालय के प्रांगणमें शिक्षा प्राप्त करते हुए भी, किसी उपाधिको धारण न करते हुए भी, साहित्यकी इतनी महती सेवा कर सकते हैं, जब कि मेरे जैसे अनेक सुशिक्षित उनके कार्यका एकांश भी अपने जीवनमें अवतरित नहीं कर सके हैं।
__ ओसवाल वैश्यकुलमें जन्म लेकर पैतृक व्यवसाय व्यापारमें प्रविष्ट होकर भी आजीवन विद्यासेवी रहनेवाले नाहटाजी किस सहृदयको प्रभावित एवं आकृष्ट न करेंगे ? महाकवि बाणने कादम्बरीमें लक्ष्मीका वर्णन करते हुए लिखा है कि सरस्वतीके वरदपुत्रोंसे वह ईर्ष्या करती है, उनसे दूर रहती है। नाहटाजीका भव्य आदर्श जीवन इस मान्यताका एक अपवाद है।
नाहटाजीके अनुकरणीय व्यक्तित्वकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये स्वतः तो साक्षात् सारस्वत हैं ही, अपने सम्पर्क में आनेवाले शिक्षितजनों बुद्धिजीवियोंके लिए भी प्रेरणा और प्रोत्साहनके अक्षय स्रोत हैं। मैं तो समझता हूँ कि वे अब एक व्यक्ति नहीं रहे, साहित्यिक गतिविधियोंके एक विशाल केन्द्र अथवा संस्थाका रूप धारण कर चुके हैं। उनकी ज्ञानोपासना आत्मसाधना और दूसरोंको प्रेरणा मानो त्रिवेणीके रूपमें प्रवाहित है और इस दृष्टिसे पवित्र एवं आदरणीय भी हैं। यह भी विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि दर्शन, ज्ञान तथा चरित्र, उनके व्यक्तित्वका अविभाज्य अंग बन चुके हैं।
ज्ञानाराधन उनके जीवनका एकमात्र व्रत है और धार्मिक संस्कार पजा सामायिक आदि उनकी दैनिक जीवन चर्यामें स्थायी स्थान रखते हैं । विविध साहित्यिक प्रवृत्तियोंमें निमग्न रहते हुए भी स्मित मुख है।
वे स्मितमुख विनोदशील हैं, मिलनसार हैं, अतिथिमक्त हैं, अहंकार रहित हैं, सदाचार एवं सद्व्यवहारकी मूर्ति हैं।
साहित्यके क्षेत्रमें उन्होंने जो कुछ कार्य किए हैं वे स्तुत्य होनेके साथ-साथ स्वर्णाक्षरोंमें अमररूपेण अंकित किए जा सकते हैं। हमारा बहमल्य साहित्यिक वैभव अनेक शताब्दियोंसे हस्तलिखित शास्त्रोंके रूपमें ज्ञान भंडारोंके तालोंमें तहखानोंमें आबद्ध था। उसके महत्त्वसे, अपनी महान सम्पत्तिसे हम अपरिचित थे। १९वीं शताब्दी में जैनाचार्य स्व० श्रीमदविजयानन्द सरीश्वरजी जैसे यगनिर्माताने भण्डारोंके उद्धारकी ओर. समाज का ध्यान आकृष्ट किया। प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी उनके योग्य शिष्य श्री चतुरविजयजी तथा उनके सुयोग्य शिष्य आगमप्रभाकर मुनि पुङ्गव श्री पुण्यविजयजी जैनने युग द्रष्टा उस महान् आचार्यके इस कार्यका उत्तरदायित्व ग्रहण कर इस विषयमें प्रशंसनीय कार्य किया। पूर्व और पश्चिमके विद्वान् भंडारोंमें अन्य दार्शनिक परम्पराओंके साहित्यको भी सुरक्षित देखकर विस्मित हुए-जैन श्रावकों एवं गृहस्थों में जिन व्यक्तियोंने ज्ञान भंडारों व हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोजका, शोधका संशोधनका सुरक्षाका प्रकाशनके
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २४५
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