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थी। डॉ० जैन रासोके विधिवत् सम्पादनको आवश्यकतापर बल देते रहते । उनके अन्तर्मनमें यह बात खट
ती थी कि हिन्दी साहित्यका आदि ग्रन्थ रासो पाण्डुलिपियोंमें ही बन्द पड़ा है । अन्ततः १९५३ अक्टूबर में इस कार्यको मैंने अपने हाथ में लिया, यद्यपि पंजाबके विश्वविद्यालयीय कुछ हिन्दी - विद्वानोंने मुझे इस विषय में निरुत्साहित किया कि इतना कठिन परिश्रम साध्य काम तुमसे अकेले नहीं हो सकेगा; जबकि काशी नागरी प्रचारिणी सभा जैसी उच्च संस्था द्वारा नियुक्त सम्पादक मण्डल भी इस कार्यको पूर्ण नहीं कर सका था। इधर जैन जीके अन्तर्मनको स्व० डा० ए० सी० वूलनरकी इच्छा (रासोका विधिवत् सम्पादन) कचोट रही थी । परिणामतः रासो - लघु संस्करण के विधिवत् सम्पादनका पूर्वरूप तैयार हो गया और पंजाब विश्वविद्यालय-सोलनको स्वीकृति के लिए भेज दिया । १९५४ अप्रैल में इस स्वीकृति के मिलने के साथ ही अचानक हृदयगति रुक जाने से डॉ० जैन का निधन हो गया । मैं स्तब्ध रह गया । जीवनमें मैं कभी भी इतना व्यथित नहीं हुआ था जितना इस समय । मैं एक पिता के स्नेह एवं सच्चे निःस्वार्थी निर्देशक से वंचित हो गया था । सब कुछ खाली-खाली एवं शून्य दिखाई देने लगा । कारण- मैं बाल्य काल से ही माता पिता के दुलार प्यार से शून्य रहा । आश्रयहीन और बेसहारे, इधर-उधर भटकते संस्कृत पाठशालाओंमें दूसरेके सहारेसे भाग्यवशात् मैं कुछ विद्याध्ययन कर सका था । निराश हो गया था । सोचता कि अब यह काम सिरे नहीं चढ़ सकेगा । क्योंकि पंजाब में कोई ऐसा विद्वान् नहीं था जिससे इस विषय में मैं विचार विमर्श भी कर सकता । चार पाँच मास यही निठल्ले बैठे बीत गए ।
डूब को कभी कभार विधिवशात् सहारा मिल जाया करता है । स्व० जैन साहित्यिक चर्चा करते समय प्रायः श्री अगरचन्द जी नाहटा का जिक्र किया करते थे। कई दिनोंके आत्मिक चिन्तनके पश्चात् श्री नाहटा जी को इस कार्य में सहायक होने के लिए मैंने पत्र लिखा । तत्काल इनका मुझे उत्साहवर्धक उत्तर मिला । जाम हुई गाड़ी फिर से चलने लगी । इसके पश्चात् पत्र व्यवहार द्वारा एक ऐसी आत्मीयता पैदा हुई कि नाहटाजी रासो सम्पादन सम्बन्धी प्रत्येक कठिनाईका समाधान करते । मुझे सबसे बड़ी कठिनाई अनूप संस्कृत लाइब्र ेरी बीकानेर से अध्ययनार्थ मँगवाई गई तीन पाण्डुलिपियोंके पढ़ने में रही। जो पाठ मुझसे पढ़ा नहीं जा सकता था उसे मैं मोमी कागजपर वास्तविक प्रतिलिपि ( फोटोस्टेट) करके भेज देता था । नाहटा जी तत्काल उसे सही पढ़कर आधुनिक लिपिमें लिखकर मुझे भेज देते । इस प्रकार रासो सम्पादन सम्बन्धी प्रत्येक घट घाटीको नाहटा जी के सहयोग से मैं पार कर सका। रासोका लघुसंस्करण छपकर अब विद्वानों के हाथों में है । नाहटा जी की इस सामयिक एवं निःस्वार्थ सहायताका मुझपर कितना भार हैमैं ही इसे अनुभव कर सकता हूँ ।
जून १९७१ तक नाहटाजीके मैं साक्षात् दर्शन नहीं कर सका था । गत १८ वर्षों के अन्तराल में हिन्दी शोधपत्रिकाओं में छपनेवाले अनेक गवेषणा पूर्ण लेखों एवं आलोचनात्मक निबंधोंके अध्ययन द्वारा ही मेरा इनसे सम्बन्ध रहा। इनके प्रति मेरी एक विशेष आस्था उत्तरोत्तर पनपती रही । इन्हीं दिनों मुझे संत रविदास - वाणी की खोजके लिए बीकानेर जानेका अवसर मिला ।
नाहटाजी के साक्षात् दर्शनों से मैं गद्गद् हो उठा। ऐसा सौम्य एवं नम्र व्यक्तित्व बहुत ही कम व्यक्तियों में मुझे देखने को मिला है। व्यापारी वर्ग से सम्बन्धित रहते हुए भी इनकी साहित्य सेवा अद्वितीय एवं अमूल्य है । हिन्दी साहित्यकी अनेक उलझनें इनके परिश्रमसे सुलझ पाई हैं, पाण्डुलिपियोंमें पड़े अनेक अमूल्य ग्रन्थोंका इनके अथक परिश्रम एवं प्रयत्नोंसे प्रकाशन हो सका है । भारतके विभिन्न विश्वविद्यालयोंके शोधार्थी छात्रोंको इनका अमूल्य एवं निःस्वार्थ सहयोग मिलता है । साहित्य सेवा, समाज सेवा एवं परोपकार
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २३५
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