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ज्ञानसे लाभान्वित होते हैं। मैं ऐसे ज्ञान तपस्वी, कर्मठ योगी, आत्म साधक सारस्वत को उनके अभिनन्दन साहित्यके पावन अवसरपर अपने भाव- कुसुमोंकी भेंट अर्पित करती हुई उनके दीर्घ जीवनकी कामना करती | राजस्थानका यह लाड़ला कई दशकतक जीवित रहे और अपने ज्ञान भास्करको अरुणिमासे हमें आलोकित करता रहे, यही हार्दिक अभिलाषा है । मैं पुनः पुनः अभिनन्दन करती हूँ ।
अविस्मरणीय नाहटाजी श्रीमती (डा० ) रामकुमारी मिश्र
बाल्यकालसे ही नाहटाजी की विद्वत्ताकी प्रशंसा अपने पूज्य पितासे बारम्बार सुननेपर भी मैं उनके व्यक्तित्व से बहुत समय तक अपरिचित रही । अनुमानको वास्तविक रूप देनेके लिए घर में रखी हुई 'राजस्थान भारती' एवं 'शोध पत्रिका' के लेखोंको देखा, समझने की कोशिश की किन्तु यह आज भी स्मरण है। कि मैं उन्हें सही-सही समझ नहीं पाई। एम० ए० प्रथम वर्षके पाठ्यक्रम में निर्धारित 'पृथ्वीराज रासो' का अध्ययन करते समय श्री नाहटाजी का प्रसंग आया तो डा० माताप्रसाद गुप्तने प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों के उद्धारकके रूपमें उनको चर्चा की ।
नाहटाजी के व्यक्तित्वका वास्तविक मूल्यांकन मैं तब कर सकी जब विवाहोपरान्त अपने पतिके माध्यम से उनके निकट सम्पर्क में आई । तब मैं डी० फिल० की शोध छात्रा थी और 'बिहारी सतसई का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन' मेरे शोधका विषय था । भाषा वैज्ञानिक अध्ययनके पूर्व 'बिहारी सतसई' का पाठ संशोधन आवश्यक था क्योंकि प्रामाणिक पाठके बिना इसका भाषागत अध्ययन सम्भव भले हो जाता किन्तु समीचीन न था । भाषा वैज्ञानिक पिताकी पुत्री होने के नाते जहाँ एक ओर मुझे भाषागत अध्ययन करना था, वहीं दूसरी ओर प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थके प्रति आकृष्ट वैज्ञानिक किन्तु विद्वान् पति की पत्नी होने के नाते मुझे प्रामाणिक पाठ तैयार करना आवश्यक हो गया ।
प्राचीनतम कृतियोंको उपलब्ध कराने में नाहटाजी का सहयोग वांछनीय था । आरम्भमें उन्होंने पत्रों द्वारा 'बिहारी सतसई' की प्रतियोंके सम्बन्धमें जानकारी दी और फिर वहाँ आकर ग्रन्थागारोंसे आवश्यक सामग्री जुटाने के लिए सलाह दी। बीकानेर जाने पर अनूप संस्कृत लाईब्रेरी एवं अभय जैन ग्रन्थालयकी बहुमूल्य कृतियों से लाभान्वित कराने में उनका सहयोग उनकी उदारताका द्योतक था। यही नहीं, उन्होंने कुछ प्रतियों की प्रतिलिपि कराकर भी मेरे पास भेजीं, जिससे मैं अपने दुष्कर कार्यको सुगम रूप देने में समर्थ हो सकी । बीच-बीचमें उनके आये हुए पत्रोंसे भी मुझे प्रोत्साहन मिलता रहा । साहित्यकार के प्रति उनकी यह जागरूकता उनके उच्चकोटि के साहित्यकार होनेका प्रमाण प्रस्तुत करती है ।
नाहाजी से मुझे पुन: सहायता एवं परामर्श की अपेक्षा उस समय हुई जब मैं यू० जी० सी० फेलोके रूपमें अपने डी० लिट्० कार्यके लिए प्रविष्ट हुई। सूफी साहित्यका अवधी ग्रन्थ चंदायन अपूर्ण स्थिति में ही उपलब्ध हो सका था और पूर्ण जानकारीके लिए इसकी अन्य प्रतियोंको देखना आवश्यक था । ऐसी स्थिति में नाहटाजी ने चंदायनकी प्रकाशनामिमुख कृतिके छपे फर्मे मेरे पास भेजकर मेरे कार्य को अग्रसर करने में पूर्ण सहायता की ।
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व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २२५
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